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योगवासिष्ठ।

हौं॥ हे मुनीश्वर! मृत्यु जिसको मारता है, अरु जिसको नहीं मारता, सो श्रवण करहु, दुःखरूपी जो मोती हैं, सो वासनारूपी तंतुसे परोए हैं, यह माला जिसके हृदयरूपी गलेविषे पड़ी हुई है, तिसको मृत्यु मारता है, अरु जिसके कंठविषे यह माला नहीं पडी, तिसको मृत्यु नहीं मारता, शरीररूपी वृक्ष है, अरु चित्तरूपी सर्प तिसविषे बैठा है, आशारूपी अग्नि जिस वृक्षको नहीं जलावता, सो मृत्युके वश नहीं होता, अरु रागद्वेषरूपी विषसों पूर्ण जो चित्तरूपी सर्प है, अरु तृष्णाकरि चूर्ण होता है, लोभरूपी व्याधकरि नष्ट होता है, तिसको मृत्यु मारता है, अरु ग्रासि लेताहै, जिसको इनका दुःख नहीं स्पर्श करता, तिसको मृत्यु भी नहीं नाश करता॥ हे मुनीश्वर! शरीररूपी समुद्र है, क्रोधरूपी वडवाग्निकरि जलता है, जिसको क्रोधरूपी अग्नि नहीं जलाता, तिसको मृत्यु भी नहीं मारता, जिसका मन परमपावन निर्मल पदविषे दृढ़ विश्रांत स्थित हुआ है, तिसको मृत्यु नाश नहीं करता है॥ हे मुनीश्वर! काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, तृष्णा, चिंता, चंचलता, प्रमाद, इत्यादिक दुःख जिसविषे होते हैं, तिसको मृत्यु मारता है, अरु जिसको काम, क्रोध, लोभादिक रोग (संसारबंधनका कारण) बांधि नहीं सकते, अरु जो इनकरि लेपायमान नहीं होता, तिसको आधिव्याधिरूपी मल स्पर्श नहीं करते, अरु जो लेता है, देता है, सब कार्य करता है, अरु चित्तविषे अनात्मअभिमान स्पर्श नहीं करता अरु जो पुरुष इष्टकी वांछा नहीं करता, अनिष्टविषे दोष नहीं करता, दोनोंकी प्राप्तिविषे सम रहता है, तिसको समाहितचित्त कहते हैं॥ हे मुनीश्वर! जेते कछु ऐश्वर्यवान् सुंदर पदार्थ हैं, सो सब असत‍्‍रूप हैं, चक्रवर्ती राजा अरु स्वर्गविषे गंधर्व विद्याधर किन्नर देवता तिनकी स्त्री गण अरु सुरकी सेना आदिक सब नाशरूप हैं. मनुष्य, दैत्य, देवता, असुर, पहाड, ताल, समुद्र, नदियां जेते कछु बडे पदार्थ हैं, सो सबही नाशरूपहैं, स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक, पाताललोक जेता कछु जगत है, भोग हैं, सो सब असत‍्‍रूप हैं, अरु अशुभहैं, कोऊ पदार्थ श्रेष्ठ नहीं, न पृथ्वीका राज्य श्रेष्ठ है, न देवताका रूप श्रेष्ठ हैं, न नागका पाताललोक श्रेष्ठ है, न कछु शास्त्रका