पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२३

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( १५०४) योगवासिष्ठ । संकल्पकारिकै आकार होकर भासता है, दूसरा कछु बना नहीं; मैं तू अरु जगत् चैत्य अचैत्य सब वही रूप है, उसविषे कोङ शब्द फुरा नहीं, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारके शब्द भासते हैं, सो कछु वास्तव नहीं, पत्थरकी नई मौन हैं, तैसे जाग्रत जगविषे भी जेते कछु शब्द् होते हैं, सो सब स्वप्न हैं, कछ हुआ नहीं, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जैसे आकाश अपनी शून्यताविषे स्थित है, तैसे आत्मसत्ता अपने आप भावविषे स्थित है, जहां न एक है, न द्वैत है, न सत्य है, न असत्य है, न चित् है, न चैत्य है, न मौन है, न अमौन है, न कोङ चेतनेवाला है, चैत्यके अभाववत् है, सो क्या है, केवल अचैत्य चिन्मात्र आत्मसत्ता हैं, निर्विकल्परूप है । हे रामजी! सबते बड़ा शास्त्रका सिद्धांत यही है, तिस दृष्टि मौनविषे तुम स्थित होहु ॥ हे रामजी ! सर्व सिद्धांतकी समता यही है कि, निर्विकल्प होना, जिस निर्विकल्प समाधिविषे स्थित होना यह सबका सिद्धांत है, जैसे पत्थरकी शिला परममौन होती है, तैसे चैत्यते रहित होना अरु जो कछु प्रत्यक्ष आचार आनि प्राप्त होवै तिसविषे प्रवर्तना, सदा आत्मनिश्चय रहना, इसका नाम परम मौन है, सब क्रिया होती रहे,अरु अपनेविषे कछु न देखना, जैसे नट स्वांग ले आता है, तिसके अनुसार विचरता है, परंतु निश्चय उसका आदिही वपुविषे होता है, अरु चलायमान नहीं होता, तैसे जो कछु अनिश्चित आनि प्राप्त होवै, तिसको यथाशास्त्र करना परंतु अपने निर्गुण निष्क्रिय स्वरूपते चलायमान न होना, अद्वैत स्वरूपविषे स्थित रहना ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! रुद्र क्या था, अरु काली शक्ति क्या थी, अरु उसके अंग जो-बडते घटते थे, सो क्या थे, अरु नृत्य करना क्या था, वस्त्र क्या थे, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! शिवतत्त्वही आकार होकार भासता है, अपर आकार कोऊ नहीं, सो कैसा शिवतत्त्व है, चिन्मात्र हैं, अमल हैं, विद्याअविथाके कार्यते रहित शांत अवाच्यपद है, यह संज्ञा भी संकल्पविषे तुझेको कही है, आत्मवेत्ता आत्मपदको अवाच्यपद् कहते हैं, तथापि कछु मैं कहता हौं । हे रामजी! केवल आत्मत्वमात्र चिदाकाश है सोई शिवभैरव है; तिसके चमत्कारका नाम चित्तशक्ति हैं, तिसीका नाम