पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०३

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(१४८४ ) योगवासिष्ठ । इंद्रियोंको देखा, अनादि सतस्वरूप चिद् अणु इंद्रियोंके संयोगते पदा को ग्रहण करता है, स्पंदरूप जो वृत्ति फुरी है, तिसका नाम मन हुआ, जब निश्चयात्मक बुद्धि होकार स्थित भई,तब चिद् अणुविषे यह निश्चय हुआ कि, मैं दृष्टा हौं,यह अहंकार हुआ,जब अहंकारसाथ चिडू अणुका संयोग हुआ तब देशकालका परिच्छेद अपनेविषे देखत भया आगे दृश्यको देखत भया, पूर्व उत्तर काल देखत भया, आपको ऐसे देखते हैं, इस देशविषे बैठा हौं, यह मैं कर्म किया हैं,यह विषमअहंकार हुआ, देशकाल क्रिया व्यके अर्थको भिन्नभिन्नकार ग्रहण करता है, आकाश होकार आकाशको ग्रहण करता है ॥ हे रामजी । आदि फुरऐकार चिद्रअणुविषे अंतवाहक शरीर हुआ है, बहुरि संकल्पके दृढ़ अभ्यासकार' अधिभूतक भासने लगा है, सो क्या रूप हैं, जैसे आकाशविषे अपर आकाश होवे, तैसे यह आकाश है, अणुहोते भ्रमकारकै उदय हुए हैं, अरु सत्की नाईं भासते हैं, जैसे मरुस्थलविषे भ्रमकारकै नदी भासती हैं, तैसे अविचारकरिके संकल्पकी दृढता है, पंचभूत आकार भासते हैं, तिनविषे अहंप्रत्यय हुआ है, तिसकार देखता है, यह मेरा शिर है, यह मेरे चरण हैं, यह मेरा अमुक देश है, इत्यादिक शब्द अर्थको ग्रहण करता है, नानाप्रकारका जगत् शब्द अरु अर्थ सहित ग्रहण करता है, भाव अभावको ग्रहण करता है, इसप्रकार कहता है कि, यह देश है, यह काल है, यह क्रिया है, यह पदार्थ है ॥ हे रामजी। जब इसप्रकार जगवृके पदार्थका ज्ञान होता है, तब चित्त विषयकी ओर उड़ता है, अरु रागद्वेषको ग्रहण करता है, जो कछु देहादिक भूत ऊरनेकार भासतेहैं, सो केवल संकल्प- - मात्र हैं, संकल्पकी दृढताकरिके दृढ हुए हैं। हे रामजी ! इसप्रकार ब्रह्मा उत्पन्न हुआ है, इसीप्रकार विष्णु रुद्र हुए हैं, इसीप्रकार कीट उत्पन्न भये हैं परंतु प्रमाद अप्रमादका भेद है, जो अप्रमादी है, सो सदा आनंदरूप है, ईश्वर है, स्वतंत्र है, तिसको यह जगत् अरु वह जगत् अपना आप रूप है, अरु जो प्रमादी है, सो तुच्छ है, सदा दुःखी है, अरु वास्तवते परमात्मतत्त्वते इतर कछु हुआ नहीं, अपने आप स्वभा