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शिलांतरवसिष्ठब्रह्मसंवादवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४७७) हैं सो आत्मसत्ताकरि भासते हैं, ब्रह्मसत्ता सर्वविषे अनुस्यूत है ताते सबके उरविषे सृष्टि वसती हैं, जैसे एक शिलाविषे हमारी सृष्टिविये जो कछु पदार्थ भासते हैं, तिनविषे सृष्टि वसती हैं सो परिच्छिन्न दृष्टिकार नहीं भासती हैं, जब अंतवाहकदृष्टिकार देखिये तुत्र सृष्टि भासती है, घटविषे सृष्टि है, गर्तीविषे सृष्टि है, पृथ्वीविषे सृष्टि है, जल अग्नि पवन आकाशविर्षे सृष्टि है, सब ठौरविषे सृष्टि है अरु बना कछु नहीं, जैसे जहां समुद्र है, तहाँ तरंग भी होते हैं, परंतु समुद्रते भिन्न कछु तरंग हुए भी नहीं वहीरूप हैं, तैसे यह जगत् कछु उपजता नहीं, न मिटता है, ज्योंका त्यों आत्मसमुद्र अपने आपविषे स्थित है, अरु जगत जो फुरता है, सो संकल्पशक्तिकार ऊरता है, संकल्पशक्ति अरूपी किंचन मात्र उदय हुई है, अरु जैसे कमलते सुगंधि लेकर तरियां निसकती हैं, तैसे मूलते देवी जगतरूपी सुगंधिको लेकर उदय भई है, परंतु वास्तव जगत् कछु बना नहीं, संकल्पशक्तिकार बनेकी नाई भासता हैं । है मुनीश्वर । वास्तवते न कोङ संकल्प हैं, न प्रलय है ज्योंका त्यों ब्रह्म अपने स्वभावविषे स्थित है, जैसे आकाशविषे आकाश स्थित है, जैसे समुद्रविषे समुद्र स्थित है, तैसे ब्रह्मविषे ब्रह्म स्थित है ॥ हे मुनीश्वर ! यह जगत् न सत् हैं, न असत् है, आत्माविषे न उदय हुआ, न अस्त होवैगा जैसे आकाशविषे नीलता न सत् है, न असत् हैं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् न सत् है, न असत् है, अरु मैं तिस ब्रह्मका किंचन ब्रह्मा हौं, यह जगत् मेरे संकल्पविषे उत्पन्न हुआ है, अब मैं संकल्पका निर्वाणकरता हौं, जब संकल्प निर्वाण हुआ, तब जगतुका आभास हो जावैगा, जैसे कमलके नाश हुए सुगंधिका अभाव होता है, जैसे मेरेविषे इच्छा पुरी थी तिसविषे वासना है, वासनाविषे जगत् है, अब मैं इसको निर्वाण करता हौं, जब इच्छा निर्वाण हुई तब जगत्का भी स्वाभाविक अभाव हो जावैगा, अरु तुम्हारा जो शरीर भासता है, सो इस संकल्पविषे भासता है, ताते तुम अपनी सृष्टिविषे गमन करौ, नहीं तो तुम्हारा शरीर भी यहाँ निर्वाण हो जावेगा ॥ हे रामजी ! इसप्रकार मुझको कहकर