पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९५

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(१४७६) योगवासिष्ठ । णको प्राप्त भई है ॥ हे मुनीश्वर ! यह जगद्विलांस संकल्पविषे हुआ है, वास्तवते कुछ हुआ नहीं, परमात्मतत्त्वज्योंका त्यों अपनेआपविषेस्थित है,अरु मैं तू, मेरा तेरा इत्यादिक शब्द समुद्रुके तरंगकी नाईं हैं, जैसे समुद्रविषे तरंग उपजकरि शब्द करते हैं, बहुारे लीन हो जाते हैं,तैसे हमारा तुम्हारा बोलना मिलाप होता है। हे मुनीश्वर ! वास्तवते न कोऊ उपजा, न किसीमें लीन होना है, जैसे तरंग जलरूप हैं, भिन्न कछु नहीं, तैसे सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है, भिन्न कछु नहीं. इंद्रियाँमन बुद्धिआदिक सब वहीरूपहैं। हे मुनीश्वर । मैं चिदाकाश हौं,अरु चिदाकाशविषेस्थितहैं अरु यह ब्राह्मी शक्ति है, जिसने जगत् किया है, सो यह भी अजर अमर है, न कदाचित उपजी है, ननाश होवैगा, शुद्ध आत्मा किंचनद्वारा.जगत् हो भासता है, जैसे सूर्यको किरणें जल हो भासती हैं, अरु जल कछु हुआ नहीं, तैसे आत्माही है, विश्व कछु हुआ नहीं ॥ हे मुनीश्वर । जगत् जाल होकार आत्मा भासता है, जगदके उदय अस्त होनेकर आत्माविषे, कछु क्षोभ नहीं होता, ज्योंका त्यों एकरसस्थितहै, जैसे समुद्रविषे तरंग उपजते अरु लीन होते हैं, परंतु समुद्र ज्योंका त्यों रहता है, न तरंग उपजे हैं, न लीन होते हैं, तैसे जगत् कछु उपजा नहीं, संकल्पकरि उपजेकी, नाई भासता हैं, जैसे दृढताकारकै जल गड़ा हो जाता है, तैसे चिन्मात्रविषे चैत्यताकारकै पिंडाकार भासता है, परंतु उपजे कंछु नहीं ॥ हे मुनीश्वर। यह जो शिला हैं. जिसविषे हमारी सृष्टि है, सो शिला केवल चिद्धनरूप है, तुम्हारी सृष्टिविषे यह शिला है, अरु इम चेतनधन हैं, आकाश चेतन आत्मा शिला होकार भासता है, जैसे स्वप्नविषे पत्तनसृष्टि सब जाग्रत् भासती है, सो बोधरूप जगत्कार भासता है, तैसे यह जगत अरु शिलारूप होकार बोधही भासता है ॥ हे मुनीश्वर ! जैसे स्वप्नविषे ग्रहका चक्र फिरता दृष्टि आता है, सूर्य चंद्रमा पर्वत नदी वरुण कुबेर आदिक जगत भ्रमकारकै दृष्टआतेहैं, सो बनैकछु नहीं, चेतनका किंचनही ऐसे भासता है तैसे यह जगत् शुद्ध आकाशका किंचन है जैसे सूर्यको किरणोंविषे किंचित् जलाभास होता है, तैसे जहाँ आत्मसत्ता है, तहां जगत् भासता है, अरु जो पदार्थ