पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९३

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(१४७४) योगवासिष्ठ । अरु महाकल्पके अंतविर्षे रहता है, तिसविषे स्थित होनेकी इच्छा है, जिसविषे स्थित हुए पहाडवत् समाधि होजावै, ऐसे परमपदका उपदेश करो ॥ हे रामजी! इसप्रकार कहिकार भर्ताको जगावनेनिमित्त निकट जाइकरि कहत भई ॥ हे नाथ ! तुम जागौ, तुम्हारे गृहविषे अपर सृष्टिके ब्रह्माका पुत्र वसिष्ठमुनी आया,तुम उठकार इसका अर्घ्यपाद्य पूजन करौ, काहेते कि हमारे गृहविषे अतिथि आए हैं, अरु महापुरुष पूजाकार प्रसन्न होते हैं । हे रामजी ! जब इसप्रकार देवीने कहा, तब ब्रह्माजी समाधिते उतरा, प्राण आनि देहनाडीविषे स्थित हुए, जैसे वसंत ऋतुकारि सब वृक्षोंविषे रस हो आता है,तैसे दश इंद्रियां चतुष्ट भई, अंतःकरणविषे शनैः शनैः कार प्राण आनि स्थित हुए, सब इंद्रियां खिल आई तब मुझको अरु देवीको अपने सन्मुख देखत भया, अरु ज्ञानकारकै ओंकारका उच्चार कार ब्रह्माजी सिंहासनपर बैठा, ब्रह्माजीके जागनेकार बड़ा शब्द होने लगा, विद्याधर गंधर्व ऋषि मुनि आयकर प्रणाम करत भये, स्तुति करने लगे, वेदकी ध्वनिकार पाठ करने लगे, तब मुनिको कहत भये ॥ अन्यसृष्टिब्रह्मोवाच ॥ हे ऋषि ! तुम कुशलतो हौ क्यों कि बडे मार्गकार आये हौ अरु सार असारको जाननेहारे हौ, जैसे हाथविषे बिल्लका फल होता है, तैसे तुमको ज्ञान है, अरु ज्ञानरूपी समुद्र हौ ऐसे कृहकार अपने निकट आसन दिया, अरु नेत्रसे आज्ञा करी, कि इस आसनपर विश्राम करौ ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार मुझको कहा, तब मैं प्रणाम कारकै निकट जाय बैठा, एक मुहूर्त पर्यंत देवता सिद्ध ऋषिके प्रणाम होते रहे, तिसके अनंतर विद्याधर अरु देवता सब गये, तब मैं कहत भया, हे भूत भविष्य वर्तमान् तीनों कालके ज्ञाता ईश्वर परमेष्ठी ! ऊंचे आसनपर विराजमान हौ, अरु साक्षात् ब्रह्मज्ञानके समुद्र हौ, अरु यह जो तुम्हारी शक्ति देवी है, जिसको तुम भार्याके निमित्त उत्पन्न कीनी हैं, बहुरि विरस जानकार त्याग किया है, तुम्हारे वैराग्य करनेकार इसको भी वैराग्यउपजा है, इसनिमित्त सुझको ले आई है, कि परमात्मतत्त्वकी वाणीकरि हमको उपदेश करहु, सो इसका अभिप्राय क्या है। अन्यसृष्टिब्रह्मोवाच ॥ हे मुनीश्वर। मैं शांत हौं,