पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८७

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(१४६८) . योगवासिष्ट । चिंतामणी कल्पतरु है; तिसविषे जिस पदार्थका अभ्यास करता है, सो सिद्ध होता है, अभ्यासरूपी भूमिका फल देती है, जो बालक अवस्थाते अभ्यास होता है, सो वृद्धअवस्थापर्यंत होता है । हे मुनीश्वर ! जो पुरुष बाँधव नहीं होता, अरु निकट आय रहता है, तब निकटके अभ्यासते बाँधव हो जाता है, परंतु विदेश रहता हैं, तौ अभ्यासकी क्षीणताते अबांधव हो जाता है । हे मुनीश्वर । विष होता है, अरु तिसविषे अमृतको भावना करता है, तौ अभ्यासकार अमृत हो जाता है, जो मिष्टान्नविषे कटुभावना होती है तौ कटु भासता है, अरु कटुविषे मिष्टान्नकी भावना कारये तो मिष्ठान्न भासता है, जैसे किसीको निंब प्रीतम हैं किसीको मिष्टान्न प्रीतम है ॥ हे मुनीश्वर । जो कछु सिद्ध होता है, सो अभ्यासके बलकार सिद्ध होता है, पुण्य किया होता हैं, सो पापके अभ्यासकारै नाश हो जाता है, अरु पाप पुण्यके अभ्यासकार नाश होता है, अरु माता भी अमाता हो जाती है, किसी अर्थके अनर्थ हो जाते हैं, अरु मित्र भी अमित्र हो जाता हैं, भाग्य अभाग्यरूप हो जाता है, इत्यादिक पदार्थ सब चल हो जाते हैं, परंतु अभ्यासका नाश कदाचित नहीं होता ॥ हे मुनीश्वर ! जो पदार्थ निकट पडा होता है, अरु इंद्रियाँ साधक भी विद्यमान हैं, तौभी अभ्यासविना प्राप्ति नहीं होती, जहां अभ्यासरूपी सूर्य उदय होता है तहां दृष्टिरूप पदार्थकी प्राप्ति होती है, अज्ञानरूपी विषुचिका रोग है, ब्रह्मचर्चाके अभ्यासकार नाश हो जाता है, ॥ हे मुनीश्वर ! संसाररूपी समुद्र है, आदि अंतते रहित है, आत्म अभ्यासरूपी नौकाकार तिसको तरि जाताहै, जब अभ्यासको न त्यागैगा, तब अवश्य तरैगा ॥ हे सुनीश्वर ! जो पदार्थ उदय होवे, तिसके अभावकी भावना करिये तौ अस्त हो जाता है, अरु जो अस्त होवे, तिसके उदय होनेकी भावना करिये तब उदय होता है, जैसे सिद्धके शापकार उदय पदार्थकी नष्टता होती है, अरु वरते अप्राप्त पदार्थकी प्राप्ति होती है । हे मुनीश्वर ! जो पुरुष शास्त्रके इष्ट पदार्थको श्रवण करता है, अरु तिसका अभ्यास नहीं करता, सो मनुष्यविषेनीच जानना, इष्ट पदार्थकी प्राप्ति तिसको कदाचित नहीं होती, जैसे वंध्याका पुत्र नहीं होता, तैसे उसको इष्ट