पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्याधर्यभ्यासवर्णन-निर्वाणपकरण, उत्तराई ६. (१४६७ ) ऐसी कला कोऊ नहीं जो अभ्यास कियेते न पाइये, ऐसा पदार्थ कोऊ नहीं जो अभ्यासकी प्रबलता करि सिद्ध न होवे, जो थककर फिरे नहीं तो अवश्य सिद्ध होते हैं ॥ हे मुनीश्वर ! जो कछु सिद्ध होता दृष्ट आता है, सो सब अभ्यासके वशते होता है, प्रथम जो मैं तेरेसाथ आई हौं तब मुझको भी शिलाविषे सृष्टि न भासी थी, काहेते जो सृष्टि अंतवाहक शरीरविषे स्थित है, सो तुम्हारेसाथ द्वैतरूपी कथाके करनेते अंतवाहक शरीर मुझको विस्मरण हो गया था, जो विश्वकी चर्चा अरु तुम्हारी सृष्टिकी चर्चा कारकै मुझको स्पष्ट नहीं भासती, जैसे मलीन आदर्शविषे मुख नहीं भासता, तैसे तुम्हारी सृष्टि संकल्पकरि मुझको भी सृष्टि भासती नहीं, परंतु चिरकाल जो अभ्यास किया हैं; ताते बारे भासती है, काहेते जो कछु दृष्टि अभ्यास होता है, तिसकी जय होती है ॥ हे मुनीश्वर । चिन्मात्रपदविषे फुरणेकार आदि जीवके शरीर अंतवाहक हुए हैं, अर्थ यह जो आकाशरूप शरीर थे, जब उसविषे प्रमादकारिकै दृढ अभ्यास हुआ तब अधिभूत होकर भासने लगे,जब भावना उलटीकर बहुरि योगकी धारणा कारकै अभ्यास करता है, तब अधिभूतता क्षीण हो जाती है, अरु अंतवाहक प्रगट होता है, तिसकरि आकाशविर्षे पक्षीकी नई उडता फिरता है, ताते तुम देखौ, कि अभ्यासके बलकर सब कछु सिद्ध होता है ॥ हे मुनीश्वर ! अज्ञानकरके जगत् अहंकाररूपी पिशाचे लगा है, सो दृढ़ स्थित हुआ है, बार जब शास्त्रके वचनोंविषे दृढ अभ्यास होता है, तब क्षीण हो जाता है, हे मुनीश्वर ! तुम देखो जिस किसी सृष्टिको प्राप्ति होती है, सो अभ्यासके बल करके होती है, जो अज्ञानी होता है, 'अरु ब्रह्म अभ्यास करता है, तौ ज्ञानी होता है, अरु पर्वत बडा है, परंतु जब अभ्यासकर चूर्ण किया चारै तौ चूर्ण होता है, अरुसंपूर्ण वृक्षको भोजन करना कठिन हैं, परंतु अभ्यास कारकै शनैः शनैः धूणा खाय जाता है, आप तौ छोटा है, परंतु जो वस्तु पानी कठिन होवै सो अभ्यासकरि सुगम हो जाती है, जैसे चिंतामणि अरु कल्पतरुके निकट जायकार जिस पदार्थकी वांछा करता हैं, सो सिद्ध होता है, जैसे आत्मरूपी