पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८०

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्याधरीविशोकवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तराई ६.(१४६१) तिसविषे एक ब्राह्मण रहता है, सो वृद्ध अवस्था अबलगजीवता है,सो ब्राह्मण एकांत जाय बैठा है, अरु सदा वेदका अध्ययन करता है, तिसने मुझको अपने विवाहके निमित्त अपने मनते उपजाई है, अरुअब मैं भी बडी हुई हौं, जैसे वसंतऋतुकी मंजरी होती हैं, अरु मेरे मनका विवाह नहीं करता, जबका उपजा हैं, तबका ब्रह्मचारीही रहता है; अरु वेका अध्ययनकार विरक्तचित्त हुआ है ॥ हे मुनीश्वर ! उस ब्राह्मणने मुझको विवाहके निमित्त उपजाई हैं, अरु वस्त्र औ भूषणसंयुक्त मैं उत्पन्न भई हौं, अरु चंद्रमाकी नई सुंदर हौं,सबअंग मेरे सुंदर हैं,सब जीवको मोहने हारी हौं, मुझको देखिकर कामदेवभी मूर्छित हो जाता है, अरु फूलकी नई मेरा हँसना है, अरु सब गुण मेरेविषे हैं, अरु महालक्ष्मीकी मैं सखी हौं, मेरा त्याग कर ब्राह्मण एकांत जाय बैठा है, अरु सदा वेदका अध्ययन , करता है, अरु बडा दीर्घसूत्री है, जब मैं उत्पन्न भई थी तब कहता था कि, मैं तुझको विवाहगा जब मैं यौवन अवस्थाको प्राप्त भई हौं, तब त्यागिकार एकांत जाय बैठा है॥ हे मुनीश्वर ! स्त्रीको सदा भर्ती चाहिता है, अब मैं यौवन अवस्थाकार परी जलती हौं, अरु जो बड़े तलाव कमलसहित दृष्टि आते हैं, सो भर्ताके वियोगकर अग्निके अंगारे भासते हैं, अरु बडे बाग नंदनवन आदिक मुझको मरुस्थलकी नाईं भासते हैं, इनको देखिकारि रुदन करती हौं, नेत्रते जल चला जाता है, जैसे वर्षा कालका मेघ वर्षावता है, तैसे मेरे नेत्रते जल चुलता है, जब मैं मुख आर्दिक अपने अंगको देखती हौं, तब नेत्रके जलकर निकट कमलिनी डूब जाती है, अरु जब कल्पतरु तमालवृक्षके फूल पत्र शय्यापर बिछायकार शयन करती हौं, तब अंगके स्पर्शकार फूल जलावते हैं, जिस कमलसाथ मेरा स्पर्श होता है, सो जलि जाता है, ॥ हे भगवन् ! भतके वियोगकर मैं तपीहुई हौं, जब बफेके पर्वत ऊपर जाय बैठती हौं, तब वही अग्निवत् हो जाता है, अरु मैं नानाप्रकारके फूलको गलेविषे डारती हौं, तब भी तप्तता निवृत्त नहीं होती, मैं सुंदर हौं, अरु भताको सुख देनेहारी हौं, अरु मेरे भताकी देह त्रिलोकी है, तिसके चरणोंविषे सदा मेरी प्रीति रहती है, अरु मैं गृहके सब