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विद्याधरीविशोकवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४५७) शरीरको सत् जानता है, अरु जगत्को भी सत् जानता है, काहेते जो. स्वरूपका प्रमाद है; स्वप्नकालविषे, सृष्टिको सत् जानता हैं, अरु जागे हुए तिसको असत्य जानता हैं, तिसका नाम मध्यसवेंग है, काहेते जो सोया हुआ शीत्रही जाग उठता है, अरु जो सोया अरु जागै नहीं तिसका नाम तीव्रसंवेग है। हे रामजी ! आदि संकल्प स्वप्न विषयरूप भासते हैं, तिसविषे नाना प्रकारकी सृष्टि होकार स्थित है, जिनको आदि स्वरूपका प्रमाद नहीं हुआ तिनको यह जगत् मृदुसंवेग है, काहेते सो अपनी लीलामात्र असत्य जानते हैं, अरु जिनको आदि स्वरूपका प्रमाद हुआ है, अरु बहुवारि शीघ्रही स्वरूपविध जागि उठते हैं, तब तिनको यह जगत् असत्यभासता है, उनकी इस जगतविषे सत्यप्रतीति नहीं होती, अरु जिनको प्रमाद हुआ है, बहुरि जागै नहीं, तिनको यह जगत् सत् हो भासता है, काहेते जो चित्तकी वृत्तिका प्रमाण तीव्र हो गया है, इसकारणते अज्ञानीको यह जगत् स्वरूप जागृत हो भासती है, जैसे स्वप्नकालविषे स्वप्नकी सृष्टि सत्य हो भासतीहै । हे रामजी ! चित्तके फुरणेका नाम जगत् है, जब चित्त बहिर्मुख होता है, तब जगत् हो भासता है, अरु स्वरूपका अज्ञान होता है, जब अज्ञान हुआ, तब जगम दृढ होता जाता है, ताते इस जगत्का कारण अज्ञान हैं । हे रामजी । आत्माके अज्ञानकारकै जगत् भासता है, जब आत्मज्ञान होवैगा, तब जगद्धम निवृत्त हो जावैगा, सो आत्मा अपना आप है, ताते आत्मपदविषे स्थित होउ, तब जगद्धम निवृत्त हो जावेगा ॥ हे रामजी । अज्ञानकारकै इस जगतकी सत्य प्रतीति होती हैं, तिसविषे जैसी जैसी भावना होती है, तैसेही जगत् हो भासता है । हे रामजी ! जिसप्रकार जगद्धम सत्य हो भासता है सो सुन, जो अज्ञानी जीव है, जब मृतक होता है, तब मुक्त नहीं होता, अज्ञानके वशते जड पत्थरवत होता है, काहेते जो चेतनरूप है । हे रामजी । जब मृत्यु होता है, तब आकाशरूप चित्तविषेही जगत् फुरि आता है, अरु अपनी वासनाके अनुसार नानाप्रकारका जगत् हो भासता है, अरु नानाप्रकारके व्यवहाररचना क्रियासहित होकर भासती हैं, अरु कल्पपर्यंत संब क्रिया