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ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४३९) अहंकार कहाँ होवै ॥ हे रामजी ! न मैं हौं, न मेरेविषे कछु फुरना है, अथवा सर्वं आत्मसत्ता मैंही हौं, तो भी अहंकार न हुआ । हे रामजी ! हमारा अहंकार ऐसा है, जैसे अग्निकी मूर्ति लिखी होती है, तिसते अर्थ सिद्ध कछु नहीं होता, दृष्टिमात्र हुई है। तैसे ज्ञानीका अहंकार देखनेमात्र है, कर्तृत्व भोक्तृत्वका नहीं होता, अपने स्वभावविषे स्थित है, सर्व ज्ञानवान्का एकही निश्चय है, जो ब्रह्मही भासता है, अरु अहंकारका अभाव है, न आगे था, न अब है, न वहुरि होवैगा, भ्रमकरिकै अहंकार शब्द जानता है ॥ हे रामजी ! जब ऐसे जानेगा तव अहंकार नष्ट हो जावैगा, जैसे शरत्कालविष मेघ देखनेमात्र होता है, वर्षाते रहित, तैसे ज्ञानीका अहंकार देखनेमात्र होता है, अपरकी बुद्धिविषे भासता है, परंतु ज्ञानीक निश्चयविषे असंभव है, उसका अहंप्रत्यय आत्माविषे रहता है, परिच्छिन्न अहंकारका अभाव हो जाता है, जब अहंकार नाश हुआ, तव अविद्याझा भी नाश हुआ, अरु यही अज्ञानका नाश है, ये तीनों पर्याय हैं ।। हैं रामजी ! अपने स्वभावविध स्थित होकर प्रकृत आचारको करने, अरु अंतरते शिलाकोशवत् हो रहु, अरु बाह्य इंद्रियोंकी क्रिया सव रहै अरु अपने निश्चयको गुप्त राखिये, अरु सर्व इंद्रियोंको इसप्रकार धारहु, जैसे आकाश सवको धाररहा है, अंतरते शिलाके जठरवत् रहो, देखनेमात्र तुम्हारेविषे भीअहंकार दृष्ट अवैगा, जैसे अग्निकी मूर्ति लिखी दृष्ट आती है तैसे तुम्हारेविषे अहंकार दृष्ट अवैगा, परंतु अर्थ कारण होवैगा, केवल ब्रह्मसत्ताही भासगी, अपर कछु न भासैगा ॥ इति श्रीयो० निव० विदिप्तवेदाहंकारवर्णनं नाम शताधिकसप्तसप्ततितमः सर्गः १७७॥ - शताधिकाष्ठसप्ततितमः सर्गः १७८. ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनम् । | राम उवाच ॥ हे भगवन् ! बड़ा आश्चर्य है कि, तुमने अहंकारके यागेते परम सात्विकी प्राप्तिका उपदेश किया है, सो यह परम दृशा