पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५५५

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(१४३६) योगवासिष्ठ । हैं, अपूर्वं भूत देखे, अरु नानाप्रकारके स्थान देखे, अरु गरुडके स्थानको लंघता गया, कहूँ सूर्य का प्रकाश होता है, तिसको भी लंधता गया, कहूँ ऐसे देखा कि, सूर्यको प्रकाशही नहीं, बहुरि चंद्रमाके मंडलको लंध, आगे एक अग्निका स्थान था, तिसको मैं लंधिकार महा आकाशविध गया, जहां इंद्वियको रोकना भी न रहै, काहेते जो इंद्रियोंके विषय कोऊ दृष्ट न आवै, एक आकाशही आकाश दृष्ट आवै, अरु वायु अग्नि जल पृथ्वी चारोका अभाव है। हे रामजी ! तिस स्थानविर्षे मैं गया, जहां भूत स्वप्नवत् भी दृष्ट न आवै, अरु सिद्धकी गम भी नहीं, तहाँ जायकार मैं एक संकल्पकी कुटी रची अरु तिसकेसाथ कल्पवृक्ष फूल पत्रकार पूर्ण रचे, तिस सुंदर कुटीके एक और छिद्र रक्खा मेरा जो सूक्ष्म संकल्प था सो प्रत्यक्ष आनि हुआ, तिस कुटीको रचकार तिसविरेचे प्रवेश किया अरु संकल्प किया जो सौ वर्षपर्यंत मैं समाधिविषे रहौंगा, उसते उपरांत समाधिते उतरौंगा, ऐसे विचारकार में पद्मासन वाँधा, अरु समाधिविषे स्थित भया, अरु परमशांतिविष स्थित भया, अरु जहां कोऊ क्षोभ नहीं, तिस निर्विकल्प समाधिविषे सौ वर्ष जब व्यतीत भये, तब वह जो भावी थी समाधिके उतरनेकी, सो संकल्प आनि फुरा, जैसे पृथ्वीविषे बीज बोया हुआ काल पायकरि अंकुर लेता है, तैसे संकल्प आनि फुरा, प्रथम प्राण आनि फुरे, जैसे सूखा वृक्ष वसंतऋतुविषे फुरि आता है, तैसे प्राण ऊरि आए, तव ज्ञान इंद्रिय प्रगटि आई, जैसे वसंत ऋतुविषे फूल खिल आते हैं, तैसे ज्ञानइंद्विय खिल आई बहुरि स्पंद जो है अहंकाररूपी पिशाच, सो आनि कुरा कि, मैं वसिष्ठ हौं, ऐसा जो अहंकाररूपी पिशाच अरु इच्छारूपी तिसकी स्त्री सो आनि फुरे ॥ हे रामजी ! सो वर्षों मुझको ऐसे व्यतीत हुआ, जैसे निमेषका खोलना होता है, काल भी वहुत प्रकारकरि व्यतीत होता है, किसी थोड़ा हो जाता है, अरु किसीको बहुत हो जाता है, सुखी होता है, तब वहुत काल भी थोड़ा हो भासता है, अरु दुःखीको थोड़ा काल भी बहुत हो जाता है । हे रामजी ! इस समाधिका जो मैं वर्णन किया, सो यह शक्ति सब जीवविध है, परंतु