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(१४३२) योगवासिष्ठ । प्रमाणुते जगत्का उत्पन्न होना असंभव है ॥ हे. रामजी ! सूक्ष्म परमाणुका कार्य भी जगत् तब कहिये, जब सूक्ष्म अणु भी आत्माविषे पाय जादै, आत्मा तो अद्वैत है, तिसविषे एक अरु दो कहनेका अभाव है, आत्माविष जानता भी नहीं, केवल आत्मतत्त्वमात्र है; आधार आधेयते रहित है, वीज भी तव परिणमता है, जब उसको जल देता है, अरु रक्षा करनेका स्थान होता है, अरु आधार आधेयते रहित है, केवल अपने भावविषे स्थित है, अद्वैत सत्तामात्र है, जैसे वंध्याके पुत्रको कारण कोऊ नहीं, तैसे जगदका कारण कोऊ नहीं, जो वैध्याका पुत्रही नहीं, तौ तिसका कारण कौन होवै; तैसे जगत् है नहीं, तौ ब्रह्म इसका कारण कैसे होवै, अरु जिसको तू दृश्य कहता है, सो इष्टाही दृश्यरूप होकर स्थित भया है, जैसे स्वप्नविषे द्रष्टाही दृश्यरूप होता है, वैसे यह जागृत दृश्यरूप होकर आत्माही स्थित है । हे रामजी ! जैसे सूर्यकी किरणें जलाभास होकार स्थित होती हैं, तैसे ब्रह्मही जगत् आकार होकार दृष्टि आता है, इश्य भी कछु दूसरी वस्तु नहीं, जैसे समुदही तरंग आवर्तरूप होकार भासता है, तैसे अनंतशक्ति होकर परमात्मसत्ता स्थित है । हे रामजी ! मैं अरु तू यह जगत्के पदार्थ सव कुरणेमात्र हैं, जैसे संकल्प नगर होता, जो मनकारि रचा है, तैसे यह जगत् आत्माविषे कछु बना नहीं, केवल अपने आपविषे ब्रह्म स्थित है, हमको तौ सदा वही भासता है ॥ हे रामजी ! आत्माविषे यह जगत् न उदय हुआ न अस्त होता है, सदा ज्योंका त्यों निर्मल शांतपद है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे द्वैतैकताप्रतिपादनं नाम शताधिकचतुःस प्ततितमः सर्गः ॥ १७४॥ शताधिकपंचसप्ततितमः सर्गः १७५. परमशांतिनिर्वाणवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जगत्को भाव अभाव जड चेतन स्थावर जंगम सूक्ष्म स्थूल शुभ अशुभ कछ हुआ नहीं, तो मैं तुझको