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भुशुंडोपाख्यानेऽस्ताचललाभवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

तिस शिखरके ऊपर एक बड़ा कल्पवृक्ष है, मानो जगत‍्‍रूपी शिखरका प्रतिबिंब आय पड़ा है, तिस कल्पवृक्षके दक्षिण दिशाकी ओर जो टास है, तिसके महारत्न गुच्छे हैं अरु स्वर्णके पत्र चंद्रमाके बिंबवत् जिसके फूल हैं, अरु सघन रमणीय गुच्छे लगे हैं, तहां एक आलय बना हुआ है, वहां मैं भी आगे रहि आया हौं, जब देवीजी समाधिविषे स्थित भई थी, तब मैं वहां आलय बनायकरि स्थित भया था, चिंतामणिकी उसको शलाका लगी है, महारत्नसे बना है, स्वर्णवत् कुटीर बनी है, तहां तुम जाय निवास करौ, आगे भी वहां कौवेके पुत्र रहते हैं उनका अंतर आत्मज्ञानकरि शीतल है, अरु बाह्यते फूलफलकार शीतल है, तहां तुम भी जायकरि स्थित होहु, तुमको वहां भोग भी है, अरु मोक्ष भी है, खेदते रहित तहां जाय स्थित होहु॥ हे वसिष्ठजी! जब इसप्रकार पितामहने हमको कहा, तब सबही पिताके चरण लगे, पिताने हमारा मस्तक चुंबन किया, तब हम विंध्याचल पर्वतते उडे, आकाशमार्गको मेघके स्थान लंघे. नक्षत्रचक्र लंघे, लोकांतरके स्थान लंधिकरि , ब्रह्मलोकविषे जाय प्राप्त हुए, देवीजीको प्रणाम करत भये, भलीप्रकार उसने हमारे ऊपर कृपादृष्टि करी, दया अरु स्नेहसहित कंठ लगाय मस्तक चूमा हम भी मस्तक टेककरि सुमेरुको चले॥ ॥ सूर्य चंद्रमाके लोकको लंघ गये, तारागण लोकपाल देवताके लोकस्थानको लंघ गये, मेघपवनके स्थानको लंघिकरि सुमेरु पर्वतके कल्पवृक्षपर आनि स्थित भये॥ हे मुनीश्वर! जिसप्रकार हम उपजे हैं, अरु जिसकार ज्ञानको प्राप्त भएहैं, जिसप्रकार यहां आय स्थित भयेहैं, सो तुम्हारे आगे अखंडित कहा है, आगे तुमको जो कछु संशय होय सो पूछो॥

इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुण्डोपाख्यानेऽस्ताचललाभो नाम षोडशः सर्गः ॥१६॥