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सर्वसत्तोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४१९) तिसके आगे वल करै, अरु ज्ञानरूपी यज्ञ करै, जो आत्माके विशेष वेदशास्त्रविषे कहे हैं, नित्य वेद शुद्ध है, बोधरूप है, अद्वैत है, निर्विकल्प है, देह इंद्रियां प्राण आदिकते रहित है, ऐसे जाननेका नाम ज्ञान है, सो यहीं यज्ञ है, ध्यानरूपी स्तंभ कारकै, अरु तृष्णारूपी बल करिकै, अरु मनरूपी दृश्यको जानकर यह यज्ञ पूर्ण होता है जब ऐसा यज्ञ हुआ, तब तिसके पाछे दक्षिणा भी करिये, तव यज्ञफल होवै, जो सर्व देना यह दक्षिणा है, सो क्या सर्वस्व है, अहंकार त्याग करना सर्वस्व त्याग है, जब सर्वस्व त्याग किया, तव यज्ञ सफल होता है। इसका नाम विश्वजितयज्ञ है, जब इस प्रकार यज्ञ हुआ, तब इसका फल भी होता है, सो फल क्या है, यद्यपि अंगारकी वर्षा होवे, अरु प्रलयकालका पवन चलै, अरु पृथ्वी आदिक तत्त्व नाश होवें, तब ऐसे क्षोभविषे भी चलायमान नहीं होता, यह फल इसको प्राप्त होता है, जो कदाचित् स्वरूपते नहीं गिरता,यह शत्रु नाश वज्रध्यान है । हे रामजी! अहंताका त्याग करना यह सर्वते श्रेष्ठ त्याग है, जो कार्य अर्हताके त्याग कियेते होताहै, सो अपर उपायकार नहीं होता,तप दान यज्ञ दमन उपदेश उन उपाधिहूते भी अहताका त्याग करना वड़ा साधन हैं, सर्व साधन इसके अंतर्भूत होते हैं। हे रामजी जब तू अहंताका त्याग करेगा, तब अंतर बाहर तुझको ब्रह्मसत्ताही भासैगी, द्वैतभ्रम संपूर्ण मिटि जावेगा। हे रामजी ! मनके सर्व अर्थरूपी तृणोंको ज्ञानरूपी अग्नि लगाइये अरु वैराग्यरूपी वायुकरि जगाइये, तब इन तृणको भस्म करि डरै तव तू परमशांतिको प्राप्त होवैगा, मनके जलानेकार परम संपदा प्राप्त होती हैं, इसते इतर सव आपदा हैं, मन उपशमविषे कल्याण है, यह जो अंतर वाहिर नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, सो मनके मोहते उत्पन्न हुए हैं, जब मन उपशमको प्राप्त होवै, तब नानाप्रकार जो भूतकी संज्ञा है, मनुष्य पशु पक्षी देवता पृथ्वी आदिक सो सव आकाशरूप हो जाते हैं । हे रामजी ! यह सर्व ब्रह्म है, ज्ञानीको एकसत्ता भासती है, दूसरा कछु अपर बना नहीं, भ्रमकारकै जगत् भासता है, अरु तिसविषे नानाप्रकारकी वासना हुई है, अपनी अपनी वासनाके