पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५३४

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सर्वसचोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४१५) होता है, तब विवेकरूपी दूत भेजता है तब इसको संतकी संगति होती है, अरु सच्छास्त्रका श्रवण होता है, तिनके अर्थविषे दृढ भावना होती है, तव विवेकरूपी दूत उसको अदृश्यताविषे प्राप्त करता है, अरु शून्य हो जाता है, बहुरि शून्यको भी त्यागिकारि वोधमात्रवि स्थित होता है, तब पूर्ण आनंद इसको प्राप्त होता है । हे रामजी यह पुरुष आनंदृस्वरूप है, अरु यह विश्व भी अपना आप है, परंतु अज्ञानकारकै भिन्न पड़ भासता है, जैसे भ्रान्ति कारकै आकाशविषे दूसरा चंद्रमा भासता है, अरु मरुस्थलविष जल भासता है, अरु आकाशविषे तरुवरे भासते हैं तैसे भ्रांतिकारकै जगत् भासता है, अरु भूतके अंतर वाहिर अध ऊध्र्वं सब ब्रह्मदेवही व्यापि रहा है, स्थावर जंगम जेता कछु जगत् भासता है, सो सब उसी आत्मतत्त्वके आश्रय फुरता है, ताते वही स्वरूप है, अरु सर्वको वही धारि रहा है, जैसे सर्व भूषणको सुवर्ण धारि रहा है, तैसे सर्व शब्द अर्थको वही धारि रहा है, वही ईश्वर ब्रह्म है, गंभीर साक्षी आत्मा ॐकार प्रणव सव उसीके नाम हैं, जब ऐसे ईश्वरकी कृपा होती है, तब अंतर्मुख होता है, अरु शुद्ध निर्मल होता है । हे रामजी ! जब इसका हृदय शुद्ध होता है, तब आत्मपदकी ओर इसकी भावना होती है, जो सर्वे आत्मा है, जब यह भावना होती है। सो यहीं भक्ति है, तब वह ईश्वर कृपा करिकै विवेकरूपी दूत भेजता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विवेकदूतवर्णनं नाम शताधिकार ष्टितमः सर्गः ॥ १६८॥ - शताधिकैकोनसप्ततितमः सर्गः १६९. सर्वसत्तोपदेशवर्णनम् । । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसको विवेककी दृढता हुई, तब परम पदको प्राप्त होता है, जो चैत्यते रहित चेतनघन है, अरु चैत्यका संवैध टूट जाता है, जव चैत्यका संवैध टूटा, तव विश्वका क्षय हो जाता है, जब विश्वक्षय भया, तव वासना भी नहीं रहती ॥