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मोक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४१५) स्थान है, नंदनवन भी सुखका स्थान है, उर्वशी आदिक अप्सरा होवें, चंद्रमा विद्यमान बैठा होवै, कामधेनु विद्यमान होवै, जो यह सव इंद्रियोंके सुख हैं, सो सव विद्यमान होवै, तो भी शांति न होवैगी, परंतु एक संतोषकार शांति होवैगी, तिसको यह विषय चलाय नहीं सकते ॥ है रामजी ! जैसे अध्यै भरि भरि पायेते तलाव भरा नहीं जाता, अरु जब मेचजलकी वर्षा होवै, तव शीग्रही भरा जाता है, जैसे विषयके भोगकार शांति नहीं होती, अरु संतोषकार पूर्ण आनंदकी प्राप्ति होवैगी अरु संतोषकार इसको ओज प्राप्त होवैगा. कैसा प्राप्त होवैगा, जो गंभीर अरु निर्मल अरु शीतल अरु हृदयगम्य अरु सवका हितकारी ऐसा ओज संतोषी पुरुषको प्राप्त होता है, और जो ओज है, सो सात्विकी राजसी तामसी होते हैं, अरु यह जो है, सो शुद्ध सात्विकी है, जिस पुरुषको संतोष हुआ है, सो ऐसे शोभता है, जैसे वसंत ऋतुको वृक्ष फल फूल पत्रकार शोभा पाता है, अरु जिसको तृष्णा है, सो कैसा है, जैसे चरणके नीचे आया कीट मर्दन होता है । हे रामजी ! जिसको तृष्णा है, तिसको संतोष शांति कदाचित् नहीं, जैसे जलविषे तृणका पूला पाया, अरु ऊपर तीक्ष्ण पवन चला, तब बडे क्षोभको प्राप्त होता है। वैसे तृष्णावान् पुरुषको क्षोभ होता है। हे रामजी ! जो पुरुष अर्थके निमित्त सदा इच्छा करता है, सो अग्निविष प्रवेश करता है, अर्थ यह कि, जो सर्वदा काल तपता रहता है जैसे गर्दभ विष्ठाके स्थानाविषे प्रवेश करता है तैसे तृष्णावान् विषयरूपी स्थानविषे प्रवेश करता है, सो गर्दभ है, जैसे गर्दभसाथ स्पर्श करना योग्य नहीं तैसे तृष्णावान् गर्दभसाथ स्पर्श करना योग्य नहीं ॥ हे रामजी । यह संसार मिथ्या है, इस संसारके पदार्थको चाहते हैं, सो भी मूर्ख हैं। अरु इस जगत्का अधिष्ठान है सो इसको तव प्राप्त होता है, जव । निर्वासानक होता है, जब निर्वासनिक हुआ, तब संतोषको प्राप्त होता है, तब ऐसा होता है, जैसा तारेविषे चंद्रमा शोभा पाता है, ताते इच्छा नाश करनेका उपाय करौ । हे रामजी । जव इच्छा नष्ट होगई अरु संतोपरूपी गंभीरता प्राप्त भई, अरु द्वैतकलना मिटि गई, तव