पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२७

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( १४०८) योगवासिष्ठ । करते हैं, तिनकी संगति न करिये, वह कैसे हैं, जैसे यज्ञका स्तंभ होता है, सो पवित्र भी होता है, परंतु उसकी छाया कछु नहीं, ताते उसके नीचे सुख कोऊ नहीं पाता । हे रामजी ! जेते कछु सकाम कर्म हैं, सो जन्ममरणको देनेहारे हैं, यद्यपि यज्ञ व्रत जिज्ञासी भी करते हैं, तो भी उनमें विशेष हैं, काहेते कि, वे निष्काम हैं, अरु विषयविषे तिनको विरसभावना है, अरु तिनका शुभ आचार है । हे रामजी ! ऐसे जिज्ञासीकी संगति विपेश है, जिसकी चेष्टाको सब कोऊ स्तुति करते हैं, अरु सबको सुखदायक भासता है,अरु नवनीत कोमल सुंदर अरु स्निग्ध होता हैं, ऐसा जिज्ञासी होताहै, तिसको संतकी संगति प्राप्त होती है । हे रामजी! फूलके बगीचे अरु सुंदर फूलकी शय्या आदिक विषयते ऐसा निर्भय सुख प्राप्त नहीं होता, जैसा निर्भय सुख संतकी संगतिकार प्राप्त होता हैं, अरु तिनका सदा आत्मविषे निश्चय रहता है । हे रामजी ! ऐसे ज्ञानवान्की संगति कारकै इसको आत्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है, परंतु जब हृदय शुद्ध होता है, जबलग हृदय मलिन हैं, तबलग नहीं प्राप्ति होती, जैसे उज्वल आरसी प्रतिबिंबको ग्रहण करती है, अरु लोहेकी शिला प्रतिबिंबको ग्रहण नहीं करती, तैसे जब इसका हृदय उज्वल होता है, तब संतके वचन इसके हृदयविषे ठहरते हैं, जैसे वकालका बादल थोडेसे बहुत हो जाता है, जब इसका हृदय शुद्ध होता है, तब बुद्धि बढती जाती है, जैसे वनविषे केलेका वृक्ष बढता जाता है, तैसी बुद्धि बढती जाती है, जब अात्मविषयिणी बुद्धि होती है, तब वह रूप हो जाती है, बुद्धिकी भिन्न संज्ञाका अभाव हो जाताहै, जैसे लोहेको पारसका, स्पर्श होता है, तब सुवर्ण हो जाता है, बहुरि लोहेकी संज्ञा नहीं रहनी, तैसे आत्मपदकी प्राप्ति हुए बुद्धिकी संज्ञा नहीं रहती, अरु विषयभोगकी तृष्णा भी नहीं रहती ॥ हे रामजी ! इसको दीन जो किया है, सो विषयकी तृष्णा अभिलाषाने किया है, जब तृष्णाका त्याग किया, तब परमनिर्मलताको प्राप्त होता है, जैसे हस्ती शिरपर मृत्तिका डारता है तबलग मलिन है, अरु जब नदीविये प्रवेश किया, तब निर्मल हो जाता है, तैसे जब तृष्णारूपी राखका त्याग किया, अरु आत्माविषे