पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२६

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मोक्षोपदेशवर्णन-निबाँणप्रकरण उत्तरार्द्ध . (१४०७) हे रामजी ! जब अपने स्वभावको जानता है, तबे परम निर्वाण पदको प्राप्त होता है, जो आदि अरु अंतते रहित पद है, तिसको पाता है, सो तिसका उपाय श्रवण कर, वेदका अध्ययन करना अरु प्रणवका जप करना, जब इनते थकै तब समाधि जो है चित्तकी वृत्तिका रोकना, सो रोकै, जब बहुरि थकै, तब वही जाय पाठ करै, जब ऐसे दृढ अभ्यास होवै, तब तिस पदको प्राप्त होवैगा, जो संसारके पार गमनका मार्ग है, जब तिसको पाया तब परमशांतिको प्राप्त होवैगा अरु स्वच्छ निर्मल अपने स्वभावविषे स्थित होवैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे उत्तरार्धेस्वभावसत्तायोगोपदेशोनाम शताधिकषट्षष्टितमः सर्गः१६६॥ शताधिकसप्तषष्टितमः सर्गः १६७. मोक्षोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । यह संसार बड़ा गंभीर हैं, जो तरना कठिन है, जिसको तरनेकी इच्छा होवै तिसको यह कर्तव्य है, जो वेदका अध्ययन, अरु प्रणवका जप, अरु चित्तको स्थिर करना, जब ऐसे उपाय करै, तब ईश्वर इसपर प्रसन्न होवैगा, तब इसके हृदयविषे विवेकका कणका उत्पन्न होवैगा तिसकरिके संसार असत्य भासैगा, अरु संतजनोंका संग प्राप्त होवैगा. सो संतजन कैसे हैं, शुभ आचार है। जिनका, अरु परम शीतल हैं, अरु गंभीर ऊंचे अनुभवरूपी फलसंयुक्त वृक्ष हैं, अरु यश कीर्ति शुभ आचाररूपी फूल अरु पत्रोंसहित हैं, ऐसे संतजनकी संगति जब प्राप्त होती है, तब जगत्के रागद्वेषरूपी तम मिटि जातेहैं, जैसे पेंडोईके शीशके ऊपर भार होवै,अरु तप्तताकार दुःखी होवे, अरु शीतल छाया वृक्षकी तिसको प्राप्त होवै,तब शीतल होता है, अरु फलके भक्षणेकार तृप्त होता है, तब थकेका कष्ट दूर हो जाताहै, तैसे संतके संगकार सुखको प्राप्त होता है, जैसे चंद्रमाका अमृत किरणोंकार शीतल होता है, तैसे संतजनके वचनोंकार शांति होती है। हे रामजी ! संतजनके दर्शन कियेते पाप दुग्ध होजाताहै,अरु जो पुरुष तप यज्ञ व्रत सकाम