पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५२५

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(१४०६ ) यौगवासिष्ठ । क्रमकार वह प्राप्त होवै, सोई किया चाहिये, तिस पदके प्राप्त हुए विना शौति कदाचित् न होवैगी, जब चित्त तिस पदकी ओर आवै, तब शांत होवै, अरु दुःखते रहित होवै, अरु अविनाशी होवै, काहेते जो सर्व आत्मनिर्विभाग है अरु अंत है, परमशांतरूप है, सबको कर्मका फल देनेहारा है, ॥ हे रामजी ! जब ऐसे पदको प्राप्त होता है, तब तिसको उत्थानकालविषे आत्माही भासता है, उसको द्वैत नहीं भासता, तब समाधिते उत्थान कैसे होवै ऐसा कोङ समर्थ नहीं जो तिसकी समाधिते उतारै जब ऐसा पद प्राप्त होता है, तब संसार विरस हो जाता है । हे रामजी ! जबलग यह पुरुष मूर्तिवत् पुतली नहीं हुआ, तबलग विपयका त्याग करै अरु जब ऐसी दशा हुई तब कर्तव्य कछु नहीं रहता, जो त्याग करै अथवा न करै, अरु यह मेरे निश्चय है, जब ज्ञान इसको उपजेगा तब विषयते विरक्त हो जावैगा, ब्रह्माते आदि काष्ठपर्यंत जेते कछु पदार्थ हैं, सो तिसूको विरस हो जाते हैं, ऐसा जो पुरुष है, तिसकी सदा समाधि हैं ॥ है रामजी ! जिसको समाधिका सुख आया है, सो स्वाभाविक समाधिकी ओर आता है, जैसे वर्षाकालकी नदी स्वाभाविक समुद्रुको जाती है, तैसे वह पुरुष समाधिकी ओर लगा रहता है, जो पुरुष विषयते अचाह हुआ है, अरु आत्मारामी भया है, तिसकी वज्रसारकी नई स्थिति होती है, जैसे पंखते रहित पर्वत स्थित हुए हैं, तैसे जिस पुरुषने संसारको विरस जानकार त्याग किया है, अरु आत्माविषे क्रीडा आत्माकोर तृप्त हुआ है, तिसका ध्यान चलायमान नहीं होता । हे रामजी । जिस पुरुषकी चेष्टा भी होती है, अरु संकल्पविकल्पते रहित है, सो सदा मुक्तिरूप हैं, तिसको कोङ क्रिया बंधायमान नहीं करती, क्रिया अरु साधनाका अभाव हो जाता हैं, जिस पुरुषको विषय जगत् विरस हो गया है, तिसको विषयहूकी तृष्णा कैसे होवे जब तृष्णान रही, तब दुःख कैसे होवै, दुःख तबलग होता है, जबलग विषयकी तृष्णा होती है विषयकी तृष्णा तब होती है, जब अपने स्वभावको त्यागता है ॥हे रामजी ! जब अपने स्वभावविषे स्थित होवै, तब परस्वभाव जो है। इंद्रियोंके विषय सो रससयुक्त कैसे भासै, दुःख अरु तृष्णा कैसे होवै ॥