पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १४००) योगवासिष्ठ । होवै, जब उस वृक्षके निकट आता है, तब शाँतिप्राप्त होती है, अरु जब इसके नीचे आय बैठता है, तब तीनों ताप अंतःकरणते मिटि जाते हैं, अपर जेते कछु वृक्ष हैं, तिनके निकट गया मनरूपी मृग शांतिको नहीं पाता, सो अपर वृक्ष कौन हैं, विषयरूपी वृक्षके निकट गया शांतिवान् नहीं होता, जब ध्यानरूपी वृक्षके निकट आता है, तब शांतिको पाताहैं, अरु बुद्धि प्रकाश आती है, जैसे सूर्यमुखी कमल सूर्यको देखिकार खिल आता है, बहुरि उसके अनुभवरूपी फल हैं, अरु शास्त्रके विचाररूपी पत्र फूल हैं, तिनको देखकर बडे आनंदको प्राप्त होता है,अरु वृक्षके ऊपर चढ जाता है, चढिकर पृथ्वी भूमिका त्याग करता है, जैसे सर्प अपनी कंचुकीका त्याग करता है, अरु नूतन सुंदर शरीरकारे शोभता है, अरु जब उस वृक्षपर चढ़ता है, तब गिरता नहीं, पत्र उसके बहुत बली हैं, तिनके आश्रय ठहरता है, सो कौन पत्र हैं, ध्यानरूपी वृक्षके सच्छास्वरूपी पत्र हैं, जब ध्यानरूपी वृक्षते उतरता है, तब शास्त्रके अर्थविषं ठहरता हैं; अरु जेते विषय पदार्थ देखाई देते हैं, सो क्षारवत् दृष्ट आते हैं, अरु अपनी पिछली चेष्टाको स्मण कारकै पछिताता है, जैसे किसीने मद्यपान किया होवे अरु तिसविषे नीच चेष्टा करै, जब मद उतरता है तब पछताया करता है, तैसे मनरूपी मृग अपनी पिछली चेष्टाको धिक्कार करता है, अरु कहता है कि, बडा आश्चर्य है, मैं एता काल इस वृक्षते विमुख हुआ भटकता फिरता हौं, अब मुझको शांति प्राप्त हुई है, जैसे दिनकी तप्त अभाव हुए चंद्रमुखी कमलिनीको शांति प्राप्त होती है, तैसे मनरूपी मृगको शांति प्राप्त होती है । हे रामजी । पुत्र धन स्त्रियादिक जो देखाई देते हैं, तिनको संकल्पपुरकी नाई अरु स्वप्नवत देखता है, जैसे स्वप्नते जागे हुए स्वप्नपुरको स्मरण करता है, परंतु तिसविषे अभिमान नहीं होता, तैसे इनविषे भी अभिमान नहीं होता, जब अनुभवरूपी फलका भक्षण करता है, तब बडे आनंदको पाता है, जिसविषे वाणी नहीं प्रवृत्त हो सकती, परम शांत अरु निर्मलपको प्राप्त होता है, अरु निरतिशय पदको प्राप्त होता है, जो मनका विषय होवे, सो सातिशय पद है, अरु जो मनका विषय नहीं सो निरतिशय पद है, अरु जो इंद्रि