पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५१७

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११३९८). योगवासिष्ठ । है, तिसका ध्यान जप करना, अरु तिसके अर्थको विचारणा यही जो हैं त्रिशूलरूप तिसका त्रिशूल करना, सो गडेके नाशका परम उपाय, हैं, जब एते शत्रुते रक्षा करै तब बीजकी उत्पत्ति होवै, तिसको संतके संग अरु सच्छास्त्रके विचाररूपी वर्षाकालके जलकार सींचिये, तब अंकुर निकसता है, अरु बडा प्रकाश होता है, जैसे द्वितीयाका चंद्रमा होता है, अरु सब कोऊ तिसको प्रणाम करते हैं, तैसे संतोष या अरु थशरूपी अंकुर निकसता है, तिसके दो पत्र निकसते हैं, एक वैराग्य, दूसरा विचार, सो दिन दिन प्रति बढता है, अरु शास्रते जो श्रवणकिया हैं, कि आत्मा सत्य है, अरु जगत् मिथ्या हैं, तिसको वारंवार अभ्याम् करना, इस जलके सिंचनेकार अंकुर दिन दिन प्रति बढता जावैगा,अरु तिसके स्तंभ बडे होवेंगे । हे रामजी ! जब टास बड़े होते हैं, तब वानर उसपर चढिकर तोड डारते हैं, सो रागद्वेषरूपी वानर हैं, ताते इस 'वृक्षको दृढ वैराग्य अरु संतोष अभ्यासरूपी रसकार घुष्ट करना, जैसे सुमेरु पर्वत होता है, तैसे संतोषकार पुष्टि करनी, जब ऐसे हुआ तब सुंदर पत्र अरु दास लगेंगे, अरु फूल मैजरी इसके साथ लगेंगे, अरु बड़े मार्गपर्यंत इसकी छाया होवैगी, शौति शीतलता शुद्धता अरु कोमलता दया यश कीर्ति इत्यादिक गुण आनि प्रगट होवेंगे, तिसके नीचे मनरूपी मृग विश्राम पाता है, अरु शीतल होता है, अध्यात्म अधिभूत अधिदैव ताप मिटि जाते हैं, अरु परमशांतिको प्राप्त होता हैं ॥ हे रामजी ! यह मैं तुझको ध्यानरूपी वृक्ष कहा है, जहाँ यह वृक्ष उत्पन्न होता है तिस स्थानकी शोभा कही नहीं जाती, जो इस वृक्षकी शरणको प्राप्त होता है, तिसके ताप मिटि जाते हैं, अरु शांतिवान होता है अरु वृक्ष जो बढता है, सो ब्रह्मरूपी आकाशके आश्रय बढता हैं, अरु इसविषे वैराग्यरूपी रस है, अरु संतोषकार इसकी छील हैं, तिसकार पुष्ट होता है, जो पुरुष इसका आश्रय लेवेगा सो शांतिको प्राप्त होवैगा ॥ हे रामजी ! जबलग गुमनरूपी मृग इस ध्यानरूपी वृक्षका आश्रय नहीं लेता, तबलग भटकता फिरता है, अरु शौतिको नहीं प्राप्त होता जैसे मृग बनविषे भटकताहै, तसे भटकताहै,