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पुनर्निर्वाणोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३९१) तिसकार ज्ञान उत्पन्न होता है, जब ज्ञान उपजा, तब आत्मदेवका साक्षात्कार होता है, सो ज्ञानका लक्षण श्रवण करु, गुरु अरु शास्त्रते जो - वस्तु सुनी है, तिसविर्षे स्थिति होती है, अरु संसारकी वासना क्षीण हो जाती है, तब ज्ञानी कहता है, जब इस ज्ञानकी पूर्णता होती है, तब जगत् उसको ब्रह्मस्वरूपही भासता है, उसको शस्त्र काटि नहीं सकते, अरु सिंह सर्पका भेद नहीं होता, अग्नि अरु विषका भय भी नहीं होता है। हे रामजी । यह विश्व सब आत्मरूप है, जैसी भावना करता है, तैसाही आगे हो भासता है, जब शस्त्रविषे शस्रके अर्थकी भावना होती है, तब शस्त्र हो भासते हैं, सर्प अशिविषे सब अपने अपने अथाकार भासते हैं, अरु जो सर्वमें आत्मभावना करता है तब सर्व आत्माही भासता है, दूसरी वस्तु कछु बनी नहीं; तौ दिखाई कैसे देवै, अरु जो पुरुष कृतकृत्य नहीं भया, अरु आपको कृतार्थं मानता है, अरु दुःखनिवृत्तिका उपाय नहीं करता, तौ दुःखके आयेते दुःखही देवैगा अरु दुःख इसको चलाय ले जावैगा अरु सुख जब आवैगा तब सुख भी इसको चलाय ले जावैगा ।। है रामजी! जो पुरुष सर्व ब्रह्म कहता है, वाणीकारकै अरु निश्चयते रहित है, अरु शास्त्र भी बहुत देखता है, तब वह महामूर्ख है; जैसे जन्मका अंध होता है, अरु सूर्यको नहीं जानता हैं, तैसे वह आत्मअनुभक्ते रहित है, जब आत्मपदका साक्षात्कार होवैगा, तब ऐसे आनंदको प्राप्त होवैगा जिसके पाएते अपर पदार्थ रसते रहित भासँगे, ब्रह्माते आदिक काष्ठपर्यंत सब पदार्थ विरस हो जावेंगे ताते आत्मपरायण हो, सदा आत्मपदकी भावना करहु । हे रामजी ! जैसी भावना होती हैं, तैसा जगत् भासता है, जैसे शुद्ध मणिके निकट जैसी वस्तु राखिये तैसा प्रतिबिंब होता है, तैसेही जैसी भावना करता है, तैसा रूप जगत् भासता है ताते जगत् ब्रह्मरूप जान, अपर दूसरा भासै सो भ्रममात्र जान, जैसे पत्थरकी शिलाके ऊपर पुतलियाँ लिखते हैं, सो शिलारूपही हैं, तैसे यह जगत् सब आत्मस्वरूप है, जब आत्मपदकी तुझको प्राप्ति होवैगी, तब सब पदार्थ विरस होवैगे ॥ हे रामजी । यह जगत्