पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०६

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अगदुपशमयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १३८७) ज्ञानका लक्षण है, अरु ज्यों ज्यों ज्ञानकला उदय होती हैं, त्यों त्यों भोगवासना क्षीण होती जाती है, जब पूर्ण बोधकी शप्ति होती है, तब इच्छा किसीकी नहीं रहती, जैसे ज्यों ज्यों सूर्य प्रकाशता हैं, त्यों त्यों अंधकार नष्ट होता जाता है, जब पूर्ण प्रकाश हुआ,तब रात्रिका अभाव हो जाता है, तैसे जिसको ज्ञान उत्पन्न हुआ है, तिसको भोगकी वासना नहीं रहती, अरु संसार तिसको जले वस्त्रकी नाई भासता है, अरु अज्ञानीको सत्य भासता है, जैसे स्वप्रविषे सुषुति नहीं होती, अरु सुषुप्तिविषे स्वप्न नहीं होता, स्वप्रका पुरुष सुषुप्तिको नहीं जानता, अरु सुषुप्तिवाला स्वप्नवालेको नहीं जानता, तैसे जिनको तुरीयापकी प्राप्ति होती है, तिनको संसारका अभाव हो जाता है, अरु अपने स्वभावविषे स्थित होता है, अरु संसारको सत् जानता है, सो स्वप्ननगर है, सुषुप्तिको नहीं जानता ॥ हे रामजी ! तेरा स्वरूप जो तुरीयापद है, तिसको अज्ञानी नहीं जान सकता, अरु जो जानै तौ परिच्छिन्न अहंकार तिसका नष्ट हो जावै, जब अहंकार नछ हुआ, तब सर्व आत्मा हुआ। हे रामजी ! इसको अहंताने तुच्छ किया है, ताते अहतारूप दृश्यका तुम त्याग करहु, अरु अपने स्वभावविष स्थित होडु, अरु संसाररूपी एक पुतली है, सो भ्रमकार उठी है, तिसका शीश ऊर्ध्वं ब्रह्मलोक हैं, पाद अरु गिटे इसके पाताल लोक हैं, अरु दशों दिशा इसके वक्षःस्थल है, अरु चंद्रमा सूर्य इसके नेत्र हैं, तारागण इसके रोम हैं, आकाश इसके वस्त्र हैं, अरु • सुख दुःखरूपी स्वभाव है, अरु पवन इसका प्राणवायु है, बगीचे इसके भूषण हैं, द्वीप अरु समुद्र इसके कंकण हैं, लोकालोक पर्वत इसकी मेखला है। हे रामजी! ऐसी जो पुतली हैं, सोनृत्य करती है, सोक्या हैं, जैसे समुद्रविषे तरंग उपजते अरु नाशहोते हैं,परंतुजलही है, तैसे जलकी नाँई सर्व ब्रह्मरूप हैं, अरु भ्रमकारकै विकार इष्ट आते हैं । हे रामजी ! कत्ता क्रिया कर्म भी सब आत्मस्वरूप है, जब तू आत्माकी भावना करैगा, तब तेरा हृदय आकाशवत् शून्य हो जावैगा, जैसे पत्थरको शिलाजड होती है, तैसे तेरा हृदय जगवते जड शून्य हो जावैगा ॥ हे रामजी! आत्मपद शाँतरूप है,अरु आकाशवत् निर्मल हैं, जैसे आका