पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५०३

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थौगवासिष्ठ है। सब अपनेही अंग देखता है, तस हमको जगत् अपना स्वरूपही भासता है ॥ हे रामजी ! जगविषे एक ऐसे जीव हृष्ट आते हैं कि, तिनको हम स्वप्नके जीव भासते हैं, अरु हमको वह शून्य आकाशवत् दृष्ट आते हैं, अरू उनके हृदयविषे हम नानाप्रकारकी चेष्टा करते अपरकी नाई भासते हैं, अरु हमको तौ जगत् ऐसे भासता है, जैसे समुद्रविषे तरंग होते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् हैं, मैं भी ब्रह्म हौं, तू भी ब्रह्म है, जगत् भी ब्रह्म है, रूप अवलोकन मनस्कार सब ब्रह्मरूप है, ताते तू भी ब्रह्मकी भावना करु, जो अपने स्वभावविष स्थित होना परम कल्याण है, अरु परस्वभावविखे स्थित होना दुःख है । हे रामजी! अपना स्वभाव साधना इसीका नाम मोक्ष है, अरु न साधना इसीका नाम बंधन है । हे रामजी! अपर पदार्थ इस ऊपर उपकार को कार नहीं सकता, नधन, न को मित्र,न कोऊ क्रिया, एक अपना पुरुपार्थ उपकार करता है, सो पुरुषार्थ यही है कि जो अपना चेतन स्वभाव है, तिसीविषे स्थित होना, परंतु स्वभावका त्याग करना, अरु जब अपने भावविषे स्थित होवैगा,तब सब अपना स्वरूपही भासैगा, अरु जो तू स्वरूपते इतर झार देखे तो न मैं हौं, नतू है, न जगत है, सब भ्रममात्र है, मृगतृष्णाके जलवत् भासता हैं, अथवा ऐसे जान कि, मैं भी ब्रह्म हौं तू भी ब्रह्म है, जगत् भी ब्रह्म है. अथवा ऐसे जान, नतू है, न मैं हौं, न जगत् है, पाछे जो शेष रहेगा सो तेरा स्वरूप है ॥ हे रामजी ! जिस पुरुषको ऐसे निश्चय हुआ है कि, मैं तू जगत् सब ब्रह्म है, अथवा मैं तू जगत्सब मिथ्या है तिसको बहुरि इच्छा कोऊ नहीं रहती; अरु जिनको इच्छा उठती है तौ जानिये कि ब्रह्म आत्माका साक्षात्कार नहीं भया. जब भोगकी वासना निवृत्त होवे, अरु संसार विरस हो जावै, तब जानिये कि, यह संसारके पारको प्राप्त भया, अथवा होवैगा । हे रामजी ! यह निश्चय कारकै जान कि, जिसको भोगकी वासना क्षीण होती है, तिसको स्वभावरूपी सूर्य उदय होताहै, अरु ओगकी तृष्णारूपी रात्रि नष्ट होती हैं, यद्यपि तिसतिषे प्रत्यक्ष भोगकी तृष्णा दृष्ट आती है, तो भी उसकी भास जाती रहती है, अरु ब्रह्मसता भासती है, अरु संसारकी ओरते सुषुप्ति हो जाती है, मृतककी