पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९३

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(१३७४) यौगवासिष्ठ । यह संसार है नहीं, हमको तौआकाशरूप भासता है, जैसे अपरके मनोराज्यका संकल्प तिसविषे आने जानेका खेद कछु नहीं होता,तैसे यह जगत् हमको अपरकी चितवनावत है, जैसे किसी पुरुषने मनोराज्यकारकै मागेविषे को स्थान रचा होवै अरु तिसविषे किंवाड लगाए होवें, अरु नानाप्रकारका प्रपंच रचा होवे, अरु जो कोऊ अपर पुरुष आता है, तिसको किंवाडविषे अटकावता कोऊ नहीं, अरु न कोऊ किंवाड है, न कोऊ पदार्थ हैं, उसका शून्यमार्गका निश्चय होता है, वैसे हमको सब प्रपंच शून्यही भासता है, अज्ञानीके हृदयविषे हमारी चेष्टा है, अरु हमको सब ब्रह्मते इतर कछु नहीं भासता । हे रामजी । जिसको जगतही न भासै, तिसको इच्छा किसकी होवै, जिसके हृदयविषे संसारकी सत्यता है तिसको इच्छा भी फुरती है, अरु राग द्वेष भी उठता है, जिसको राग द्वेष उठता है, तब जानिये कि, संसारसत्ता हृदयविषे स्थित हैं, अरु जिसको नानपदार्थसहित संसार सत्य भासता है, सो मूर्ख है, अज्ञान निद्राविषे सोया हुआ है, जैसे निद्रादोषकारिकै स्वप्नविषे पुरुष अपनी मृत्यु देखता है, तैसे जिसको यह जगत् सत् भासता . है, सो निद्राविषे सोया है । हे रामजी । बहुत प्रकारके स्थान मैं देखे हैं, तैसे तिनविषे रोग औषध भी नानाप्रकारके देखे हैं, परंतु इच्छारूपी छुरीके घावका औषध अपर दृष्ट नहीं आया, न जापकार, न तपकारे, न पाठकार, न यज्ञ दान तीर्थकर निवृत्त होता है, जेते कछु संसारके पदार्थ हैं, तिनकारकै इच्छारूपी रोग नाश नहीं होता, जब आत्मरूपी औषधकी ओर आवै, तबहीं नाश होता है, अन्यथा किसी प्रकार यह रोग नहीं जाता ।। हे रामजी । जिसे पुरुषको ज्ञान प्राप्त हुआ है, तिसकी इच्छा स्वाभाविकही निवृत्त हो जाती है, अरु आत्मज्ञानविना अनेक यत्रकार न जावेगी, जैसे स्वप्नकी वासना जागेविना नहीं जाती, अपर अनेक उपाय करिये तो भी दूर नहीं होती ॥ हे - रामजी ! ज्यों ज्यों वासना क्षीण होती है, त्यों त्यों सुखकी प्राप्ति होती है; अरु ज्यों ज्यों वासनाकी अधिकता है, त्यों त्यों दुःख अधिक है। अरु यह आश्चर्य है जो मिथ्या संसार सत्य हो भासता है, जैसे बालकको वृक्षविषे वैताल हो भासता है, तिसकार भय पाता है।