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योगवासिष्ठ।

पंचदशः सर्गः १५.

भुशुण्डसमागमवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! तिसके अनंतर मैं आकाशमार्गते वहीं आया, महातेजवान् दीपकवत् प्रकाशवान् मेरा शरीर, जब मैं उतरा तब जैते कछु पक्षी बैठे थे सो जैसे वायुकरि कमलकी पंक्ति क्षोभको प्राप्त होती है, जैसे भूकंपकार समुद्र क्षोभको प्राप्त होता है, तैसे क्षोभको प्राप्त हुए, तिनके मध्य जो भुशुण्ड था, सो मुझको देखत भयो, सो मैं कैसा था, जो अकस्मात् गया था तौ भी उसने मुझको जाना कि, यह वसिष्ठ है, ऐसे देखिकार उठ खडा हुआ, अरु कहत भया॥ हे मुनीश्वर। स्वस्थ तो हौ अरु कुशल तो है?॥ हे रामजी! ऐसे कहिकारि संकल्पके हाथ रचे, तिसने मेरा अर्ध्य पाद्य किया, भावसंयुक्त पूजन करत भया, अरु टहलूको दूर करिकै आपही वृक्षके बडे पत्र लिये तिनका, आसन रचिकर मुझको बैठाया, अरु कहत भयो॥ भुशुण्ड उवाच॥ अहो! आश्चर्य है! हे भगवन्! तुमने बड़ी कृपाकरि दर्शन दिया है, चिरपर्यंत दर्शनरूपी अमृतकर हम वृक्षसहित पूर्ण हो रहे हैं॥ हे भगवन्! मेरे पुण्य जो इकट्ठे हुए थे, सो इकट्ठे होकरि तुमको प्रसन्नताके निमित्त प्रेरि ले आये॥ हे मुनीश्वर! देवता पूजने योग्य, तिनकेभी तुम पूज्य हौ, सो तुम्हारा आना किसनिमित्त हुआ है, इस मोहरूप संसारते तुमही उबरे हो, अरु अखंड सत्ता समानविषे तुम स्थित हौ सदा पावन हौ, अभीष्ट प्रश्न यह है कि, तुम्हारा आना किस निमित्त हुआ है, यह मुझको कहौ, आपका मनोरथ क्या है? अर्थ यह कि, क्या इच्छा है, अरु तुम्हारे चरणके दर्शन करके मैं तौ सब कछु जानाहै, जिस निमित्त तुम्हारा आना हुआ है, स्वर्गकी समाविषे चिरंजीवीका प्रसंग चला था, तब मैं शरणविषे आया था, तिसकरि तुम मुझको पवित्र करने आए हौ, यह तुम्हारे चरणके प्रताप करिकै मैं जाना है, परंतु प्रभुके वचनरूपी अमृतके स्वादकी मुझको इच्छा है, इस निमित्त मैं प्रभुके मुखते श्रवण करौं॥ हे रामजी। इसप्रकार चिरंजीवी भुशुण्ड नाम पक्षीने