पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८८

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इच्छानिषेधयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३६९) उसके हृदयविषे दृढ होजाती है, अरु जो संकल्पकी सृष्टिको मिथ्या जानता हैं, तिसको शून्याकाशही भासता है, तैसे यह विश्व मूर्खके हृदयविषे दृढ भया है, अरु ज्ञानवानको आत्मस्वरूपही भासता है, जैसे मट्ठीके खिलौनोंकी सेना होती है,हस्ती घोडाआदिक दृष्ट आतेहैं,तिसविषे वह रागद्वेष नहीं करता जिसको माटीका ज्ञान है, अरु बालक माटीके ज्ञानते रहित हैं, तिसविषे रागद्वेष करते हैं, तैसे ज्ञानवान् इस जगविषे रागद्वेष नहीं करते, अरु अज्ञानी रागद्वेष करते हैं, जैसेखिलौनेविषे सारभूत मृत्तिका होतीहै, तैसे इस जगतविषे सारभूत चेतन आत्माहै, जो कछु पदार्थ भासते हैं, सो आत्माका निवृत्त है, मिथ्याही भ्रमकार सिद्ध हुए हैं, जो वस्तु मिथ्या भ्रममात्र होवै, तिसविषे सुखके निमित्त इच्छा करनी यही मूर्खता है । हे रामजी ! हमको तौ इच्छा कछु नहीं कहेते जो हमको जगत् मृगतृष्णाके जलवत् भासता हैं, ताते इच्छा किसकी करें, जिसविषे सत्य प्रतीत होती हैं,तिसविषे इच्छा भी होती हैं, जो सत्यही न भासै तौ इच्छा कैसे करे होवे । हे रामजी ! इच्छा बंधन है, अरु इच्छाते रहित होना इसका नाम मुक्ति है, ताते ज्ञानवान्को इच्छा कछु नहीं रहती, अनिच्छितही चेष्टा होतीहै, जैसे सूखा बांस होता है, तिसके अंतर बाहर शून्य होता है, संवेदन उसको कछु नहीं फुरती, तैसे ज्ञानवान्केअंतःकरणविषे अरु बाह्यकारणविषे भी शांति होती है, अंतःकरणविषे संकल्प कोऊ नहीं उठता, अरु बाह्यविषे भी उपाधि को नहीं, निःसंकल्प निरुपाधि चेष्टा उसकी होती है । हे रामजी । जिस पुरुषके अंतरते संसारका रस सूखि गया है, सो संसारसमुद्रते पार हुआ है, ऐसे जान, अरु जिसका रस नहीं सूख गया, तिसको इष्ट अनिष्टकरिकै, रागद्वेष फुरते हैं, तब संसारबंधनविषे जान ।। हे रामजी ! मैं तुझको ऐसी समाधि कहता हौं जो सुखेनही प्राप्त होवे, अरु जिसकरि मुक्ति होवै सो श्रवण करु, सर्व इच्छाते रहित होना यही परम समाधि है, जिस पुरुषको इच्छा ऊरती है, तिसको उपदेश भी नहीं लगता,जैसे आरसीके ऊपर मोती नहीं ठहरता, तैसे हृदयपर उपदेश नहीं ठहरता, अरु इसको इच्छाही दीन करती है, अरु इच्छाते रहित हुआ तब शांत