पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८५

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' (१३६६) यौगवासिष्ठ । अवाच्य पद है, तिसको वाणीकार कछु कहा नहीं जाता ॥ हे रामजी । जैसे अंगी अरु अंगवालेविषे भेद कछु नहीं, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद कछु नहीं, जैसे जल अरु इवताविषे भेद कछु नहीं, बरफ अरु शीतलताविषे भेद कछु नहीं, तैसे ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, को जगत् कहै, अथवा ब्रह्म कहै, तैसे एकही पर्याय है, जगदही ब्रह्म हैं, ब्रह्मही जगत् है, ताते आत्मपदविषे स्थित हो, भ्रमकरिकै आपको कछु अपर मानते हैं, तिसको त्यांगिकरि ब्रह्महीकी भावना करहु, अरु आपको मनुष्य कदाचित नहीं जानना, जो आपको मनुष्य जानैगातौ यह निश्चय अधोगतिको प्राप्त करनेहाराहै, ताते अधोगतिको मत प्राप्त होहु, अपने स्वरूपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थयोगोपदेशो नाम शताधिकचतुःपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १५४ ।। शताधिकपंचपंचाशत्तमः सर्गः १५५. परमार्थयोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी देशते देशांतरको वृत्ति जब जाती है, तिसके मध्य जो संवित्तत्त्व हैं, तिसको जो अनुभव करता है, सो तेरा स्वरूप है, तिसविषे स्थित होहु, अरु जैसी चेष्टा आवै तैसी करहु, देख, सुन, स्पर्श कर, गंध ले, बोल, चाल, हँसहु, सब क्रिया करहु, परंतु इनके जाननेवाली जो अनुभवसत्ता है, तिसविषे स्थित होहु, यह जायेविषे सुषुप्ति है, चेष्टा शुभ करहु, अरु अंतरते पत्थरकी शिलावत् ऊरणेते रहित होहु ॥ हे रामजी! तेरा स्वरूप निराभासहैं, भास जो दृश्य हैं, तिसते रहित हैं, अरु निर्मल शतरूप है, तिसविषे स्थित होहु, जैसे सुमेरु पर्वत स्थित है, तैसे हो, यह दृश्य अज्ञानकारकै भासती है, तमरूप है, अरु आत्मा सदा प्रकाशरूप है, तिस प्रकाशविषे भज्ञानीको तम भासती है, जैसे सूर्य सदा प्रकाशरूप है; अरु उलूकको नहीं भासता है, अज्ञानकारकै तमही भासता है, तैसे अज्ञानीको अविद्यारूप जगत् भासता है, सो अविचारते सिद्ध है; अविद्याक