पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७९

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( १३६० ) योगवासिष्ठ । है। हे रामजी । जबलग संसारका शब्द 'अर्थ इसके हृदयमें दृढ़ है तबलग शब्द अर्थ अभावकी चितवना करै, जहां इसको जगत् भासता है, तहां ब्रह्मकी भावना करै, जब ब्रह्मभावना करेगा तब संसारके शब्द अर्थते रहित होवैगा, अझ आत्मपद भासैगा । हे रामजी ! इस संसारविष दो पदार्थ हैं, एक यह लोक, दूसरा परलोक, अज्ञानी इस लोकका उद्यम करते हैं, परलोकका नहीं करते, ताते दुःख पाते हैं, अरु तृष्णा मिटती नहीं, अरु जो विचारवान पुरुप हैं सो परलो का उद्यम करते हैं, सो यहाँभी शोभा पाते हैं, अरु परलोकविपे भी सुख दुख पाते हैं, अरु दोनों लोकके कष्ट तिनके मिटि जाते हैं, अरु जो इसी लोकका उछल करते हैं, तिनको दोनोंही दुःखदायक होते हैं, यहाँ तृष्णा नहीं मिटती, अरु आगे जायकार नरक भोगते हैं अरु जिन पुरुषोंने आत्म परलोकका यत्न किया है तिनको वही सिद्ध होता है, अरु सुखी होते हैं, अरु जिनने नहीं यत्न किया सो दुःखी होते हैं, ताते अहंकारसों रहित होना यही आत्मपदकी प्राप्ति है, जवलग इसको परिछिन्न अहंकार उपजता है, तबलग दुःखी होता है, अरु नाम इसका जीव है, जो कछु ऊरता है, तिसकार विश्वकी उत्पत्ति होती है, जैसे नेत्रके खोलनेकार रूप भासता है, अरु नेत्रके मूदनेकार रूपका अभाव हो जाता है, तैसे जब अर्हता फुरती है, तब हश्य भासती है, अरु जब अहंताका अभाव होवे, तब दृश्यका अभाव हो जाता है, सो अहंता अज्ञानकार सिद्ध होती है, ज्ञानके उपजेते निवृत्त हो जाती है । हे रामजी ! जब यह पुरुष अपना प्रयत्न करे, अरु साथही सत्संग करे, इसकार संसारसमुद्रउतर जावेगा, इतर नहीं तरता ॥ हे रामजी ! युक्तिकारकै जैसे विष भी अमृत हो जाता है तैसे पुरुषार्थकार सिद्धता प्राप्त होती है । हे रामजी ! इस जीवको दो व्याधि रोग हैं, इस लोकका और पहलोकका तिसकार जीव दुःख पाते हैं, जिन पुरुषोंने संतसाथ मिलापकर इसका औषध किया है, सो मुक्तरूप हैं, अरु जिनने औषध नहीं किया, सो पुरुष पंडित हैं, तौभी दुःख पाते हैं सो औषध क्या है, शम इस करना, अरुः संतसंग करना, इन साधनकारि यत्रकार