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F - - निवाणयुक्त्युपदेशवर्णन-निवाणप्रकरण ६. ( १३५७) । जो नहीं जानता तिसको सर्प भासता है, अरु भयको प्राप्त होता है, तैसे जिसको आत्माका साक्षात्कार हैं, तिसको जगतुकल्पना कोऊ नहीं भासती, चिदानंद ब्रह्म अधिष्ठानरूप भासताहै, अरु जिसको अधिष्ठानका अज्ञान है, तिसको जगत् द्वैतरूप होकर भासता है, अरु रागद्वेपविषे जलता है । हे रामजी । अपर जगत् को नहीं, इसके अनुभवविषे जगत् कल्पना होती है, अज्ञानकारिकै द्वैतरूप हो भासता है, जब • अपने स्वभाव सत्ताविषे जागता है, तब सब अपना आप भासता है, • जैसे भविड़े अपना आपही द्वैतरूप हो भासता है, अरु राग । देष उपजता है, जब जागता है, तब सब आत्मरूप हो भासता है, तैसे यह जगत् है, न इस जगत्का कोऊ निमित्त कारण है, न कोऊ उपादान कारण है, जो पदार्थ कारणविना भासै सो असत् जानिये, वास्तव उपजा नहीं, श्रमकार सिद्ध हुआ है, जैसे स्वमष्टि अकारण है, तैसे यह जगत् अकारण हैं, भ्रमकारकै भासता है, ॥ हे रामजी ! शास्त्रको । युक्तिसाथ विचार करके देख जो वैतभ्रम मिटि जावे, रंचकमात्र भी कछु बना नहीं, जैसे आकाशविरे नीलता कछु बनी नहीं, अरु मरुस्थलकी नदी भासती है तैसे यह जगत् भी जान, आत्मा शुद्ध हैं, अद्वैत हैं, तिसविषे अहंकृतका कुरणाही दुःख है, अरु दुःखका कारण है, अरु जो स्वरूपका प्रसाद न होवे तो अहंकृत भी हुःखका कारण नहीं, अरु जो स्वरूप भूला है, तो अहंकृतादिक दृश्य विषकी वल्ली वढ़ती जाती हैं, अरु नानाप्रकारके आकारको धारती है, अरु वासना हृढ होती है, जबलग वासता होती है तबलग इंध है, जब वासना निवृत्त होवे, तबही कल्याण होता है । हे रामजी ! जिस दृश्यकी भावना करताहै; सो दृश्य भी कछु भिन्न नहीं, जैसे समुद्रविषे तरंग चक्र होते हैं, सो इतर कछ नहीं, तैसे अहंकार आदिक जो दृश्य हैं सो हैं, नहीं, जो है नहीं, तिसकी इच्छा करनी यही मूर्खता है, अरु ज्ञानवान्की वासना क्षय हो जाती है, जैसे महा अणु होता है तब आकाशको ग्रहण करता है, जो आकाशवत् बहुत सुक्ष्म होता है तैसे ज्ञानवानकी वासना भूक्ष्म होती है, वह वासना उसके बंधनका कारण नहीं होती, काहेते जो संसारकी सत्यता हृदय