पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४७२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

हँससंन्यासयोगवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१३५३ ) मुंख फुरती है, तब संसार भासता है; अरु जब अंतर्मुख होती है, तब जगत् लीन हो जाता है, ताते संसार फुरणे मात्र हैं, जैसे आकाशविर्षे नीलता भ्रमकार भासती है तैसे आत्माविषे जगत् प्रमाकरिकै भासना है, जगत् कछु बना नहीं केवल ब्रह्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, तिसविपे स्थित होहु, जब स्थित होवैगा, तब अशेष विशेष भाव मिटि जावैगा। हे रामजी । ग्राह्य अरु ग्राहक संबंध भी जाता रहेगा, केवल जो परमात्मतत्त्व शुद्ध है, अजर अमर है, खाते पीते चलते सोते वृत्ति तहाँही रखनी ॥ इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भावनाप्रतिपादनोपदेशो नाम शताधिकपचाशत्तमः सर्गः ॥ १५० ॥ शताधिकैकपंचाशत्तमः सर्गः १५१० हंससंन्यासयोगवर्णनम् ।। | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जिसप्रकार आत्मपदको प्राप्त होता है, सो सुन, जब पुरुष निरहंकार होता है तब आत्मपैदको प्राप्त होता है, जो सर्वात्मा है; तिसको आवरण करनेहारी अविद्या है, जैसे सूर्यमंडलके आगे बादल आय आच्छादि लेता हैं, तैसे अविद्या आत्माविषे आवरण करती है, तिस अविद्याकार उन्मत्तकी नाई सूख चेष्टा करते हैं, अरु जो अहंताते रहित ज्ञानवान् पुरुष है, तिसको दुःख कोऊ नहीं स्पर्श करता, संदेह भी निर्दुःख होता हैं. जैसे भींतके ऊपर मूर्तियां युद्धकी सैना लिखी होती हैं, सो देखनेमात्र शोभा इष्ट आती है, परंतु वह शांतरूप हैं; तैसे ज्ञानवान्की चेष्टाविषे भी क्षोभ दृष्ट आता है, परंतु सदा अक्षोभ निर्वाणरूप है, वासनासहित दृष्ट आता है, अरु सदा निर्वासी है, जैसे जलविषे लहरीचक्र क्षोभ दृष्ट आता है, परंतु जलते इतर कछु नहीं, तैसे ज्ञानवानको ब्रह्मते इतर कछु नहीं भासता, जिसके • अंतर दृश्यभाव शांत हो गया है, बाहिर क्षोभवान् ४ आताहै, तो भी मुक्तिरूप है, जैसे धुंएके बादल आकाशविष हस्ती घोडा पहाड़रूप दृष्ट आते हैं, परंतु है कछु नहीं, तैसे जगत् इष्ट आता है, परंतु है कछु नहीं.