पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४६७

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६ १३४८ } योगवासिष्ठः । अरु जो सुई प्रवेश न करै तौ तागा कहाँते जावे, तैसे जब अहंकार प्रवेश करता है, तब सब आपदा आती हैं, जब अहंकार निवृत्त भयो, तब सब विश्व आनंदरूप अपना आप भासता है, ताते अहंकारका अभावक काहेते जो विश्व भ्रांतिकारि सिद्ध है, आगे कछु हुई नहीं, सर्व आत्मस्वरूप है ॥ हे रामजी ! वासनामात्र विश्व है, जब वासना न होवै तब परम कल्याण है, जिसप्रकार इसकी वासना क्षय होवे सोई मुक्ति श्रेष्ठ हैं, जब युक्तिकार वासना क्षये होगी, तब चेष्टा भी होवैगी परंतु बहुरि जन्मको न देवैगी । हे रामजी ! ज्ञानी अज्ञानीकी चेष्टा तुल्य दृष्ट आती हैं, परंतु ज्ञानीका संकल्प दग्ध बीजवत् है, बहार जन्सको नहीं देता, अरु अज्ञानीका संकल्प कच्चे बीजवत् है, बहुरि जन्म देता है, अरु वास्तव देखियेतौन कोङ जन्मही पाता है, न कोङ मृत होता केवल अपने आप भावविषे स्थित है, भ्रांतिकारकै भिन्न भिन्न भासते हैं स्वरूपतेसर्व अपनाहीआप, द्वैत कछुडुआनहीं,अरु जोभासताहै,सोमिथ्या है, जैसे केलेके स्तंभविपे सार.कछु नहीं होता, तैसे प्रपंच सर्व मिथ्या है, इसविषे सार कछु नहीं, ताते इसकी वासना त्यागिकार अपने आपविषे स्थित होहु ।। हे रामजी । जिसकार तुम्हारी वासना निर्मूल होवै, सोई यत्वकार निर्मूल करौ, तब शेष परमशिवपदही रहेगा ॥ हे रामजी ! शुरुषप्रयत्नकार जबनिरहंकार होवहुगे,तब वासना आपहीक्षय होजावैगी, वासना क्षयका उपाय अपने पुरुषप्रयत्नविना कोङ नहीं. ताते हे रामजी । घुरुषार्थकारकै इसी एक देवपरायण होहु, कर्म दैव आदिक वही शुरुष होकार भासता, है, अरु कछु हुआ नहीं, जैसे एकही पुरुष देवनका स्वांग धारै ॥ हे रामजी ! इसप्रकार विचारपूर्वक सब ईषणाको त्यागिरि स्वरूपवित्रे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निराशयोगपदेशो नाम शताधिकैकोनपञ्चशत्तमः सर्गः ॥ १४९ ॥ == =