पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५९

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(३३४०) , योगवासिष्ठ । • ताते न कोऊ जड़ है, न चेतन है, चेतन आत्माही भावनाकरि जड़ दृश्य हो भासता हैं, तिसके बोधकरि एक अद्वैतरूप हो जाता हैं, तो . जानता है. कि, सर्व वही है, इतर कछु नहीं है, मित्र अज्ञानकार नाना प्रकारकी विश्व भासती है, जैसे मेघकी वर्षाकार नानाप्रकारके बीज प्रफुल्लित हो आते हैं, तैसे अहंरूपी बीजते संसाररूपी वृक्ष वासना सुखकर प्रफुल्लित होता है, जब अहंकाररूपी बीज नष्ट हो जावै, तब संसाररूपी वृक्ष नष्ट हो जावैगा । हे अंग ! जैसे वानर चपलता करता है, तैसे आत्मतत्त्वते विमुख अहंकाररूपी वानर वासनाकार चपलता करता है, जैसे खेनु हस्तते प्रहारकारि अध ऊध्र्वको उछलता है, तैसे जीव वासनाके प्रहारकार जन्मांतरविषे भटकता फिरता है, कबहूँ स्वर्ग, कबहूँ पाताल, कबहू भूलोकविषे आता है, स्थिर कदाचित नहीं होता, ताते वासनाका त्याग करौ, अरु आत्मपदविषे स्थित होहु ॥ हे तात ! यह संसार रात्रिका पेंडा है, देखते नष्ट हो जाता है, इसको देख इसविषे प्रीति करनी अरु सत् जानना यही अनर्थ है, ताते संसारको त्यागि कारि आत्मपदविषे स्थित होङ, चित्तकी वृत्ति जो संसरती है. इसीका नाम संसार है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मकीऋषिप्रबोधवर्णनं नाम शताधिकषट्चत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १४६ ॥ शताधिकसप्तचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४७, मंकीऋषिनिर्वाणप्राप्तिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे तात ! यह संसारका मार्ग गहन है, इसविषे जीव भटकते हैं, यह चेतनवृत्ति जो संसरती है, यही संसार है, जब यह संसरना मिटै, तब स्वच्छ अपना आपही स्वरूप भासे, चेतनावृत्ति जो, बहिर्मुख फुरती हैं इसीका नाम बंधन हैं, अपर बंधन कोऊ नहीं ॥ है। साधो! यह जगत् वासनाकार बाँधा है, जैसे वसंतऋतुकार रस पसरता है, तैसे वासनाकार जगत् परसता है, बड़ा आश्चर्य है, जो मिथ्या वासनाकर जीव भटकते फिरते हैं, दुःखको भोगते हैं, अरु वारंवार जन्म