पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५४

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मंकीवैराग्ययोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, १ १३३५ ) किसका है, संसारविषे सुख कहूँ नहीं, अरु यह प्राण ऐसे हैं, जैसा दामिनीका चमत्कार होता हैं, तैसे यह संसार नष्ट होता दृष्ट आता है, शरीर उपजते भी हैं, अरु मिटि भी जाते हैं, दृष्टिमात्र हैं, जैसे रात्रि आती है, बहार नहीं जानते कि, कहाँ गई ॥ हे भगवन् ! इस संसारको असार जानकारि मैं उदासीन भया हौं, जो अनेक जन्म पाये हैं, सो नष्ट हो गये हैं, इसीप्रकार भ्रमता फिरा हौं, अब तुम्हारी शरणागत हौं, अरु - जानता हौं, कि तुमसों मेरा कल्याण होवैगा, अरु तुम कल्याणरूप दृष्टं आते हौ, ताते छुपा कर कहौ कि कौन हौ ? ।। वसिष्ठ उवाच । हेमंकीऋषि ! मैं वसिष्ठ ब्राह्मण हौं, अरु मेरा गृह आकाशविषे हैं, मुझको राजा अजने स्मरण किया, तिसनिमित्त मैं इस मार्गसे गमन करताह अब तुम संशय मत करौ, जो ज्ञानमार्गको पाया है। हे रामजी ! जब मैं ऐसे कहा, तब वह मेरे चरणोंपर गिर पड़ा, अरु नेत्रोंते जल चलने लगा, जब महा आनंदको प्राप्त भया, तब मैं कहा कि, हे ऋषि'तू संशय मत कर, मैं तुझको अकृत्रिम शाँतिको प्राप्त करके शमन कराँगा, जो कछु पूछा चाहता है, सो पूछ, मैं तुझको उपदेश करौं, अरु मैं जानता हौं तू कल्याण कृत हैं, जो कछु मैं कहाँगा, सो तू धारैगा, अब तू कछु प्रश्न कर जो तेरे कषाय परिपक्व भये हैं, तू मेरे वचनोंका अधिकारी, तुझको मैं उपदेश कराँगा, अब तू संसारके तटको आय प्राप्त भया है, अब तुझको निकासनेका विलंब है, जो वैराग्यकार पूर्ण है, सो संसारका तट वैराग्य हैं, ताते संशय मत कर ॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मंकीऋषिपरमवैराग्यनिरूपणनामशताधिकचतुश्चत्वारिंशत्तमः सर्गः१४४ शताधिकपचचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४५. मंकीवैराग्ययोगवर्णनम् । मैक्युवाच ॥ हे भगवन् ! अब मैं जानता हौं कि, मेरा कार्य सिद्ध हुआ है, मुझको अज्ञानकारि मोह था, तिसका नाश करनेको तुम समर्थ दृष्ट आते हौ, मेरे हृदयका तम नाश करनेको तुम सुर्य उदय भए हौ ॥