पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४५२

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मंकीऋषिपरमवैराग्यवर्णन-निर्वाणकरण ६. [३३३३) तिसको देखकर मुझको दया उपजी, तब मैं कहा कि, हे मार्गके मित्र ! तू कहाँ धावता है, जिनको सुखदायी जाणिकर तू धावता है, सो तौ दुखदायक हैं, जैसे मृग मरुस्थलको नदी जाणिकरि जलपानके निमित्त धावता है, कि शांति पाऊँ सो अति दुःख पाता है, तैसे जिस स्थानको तू सुखरूप जानता हैं, सो दुःखरूप है । हे अङ्ग ! यह जो इस गांवके वासी हैं, तिनका संग कदाचित् नहीं करना, इनका संग दुःखरूप है, जो पुरुष विचारपूर्वक चेष्टा करता है, तिसको दुःख नहीं होता अरु जो विचारविना चेष्टा करता है, सो दुःख पाता है, यह जो नगरवासी हैं, सो आप जलतेहैं तौ तुझको सुख कैसे देवेंगे. जैसे कोऊ पुरुष अग्निकुंडविर्षे जलता होवे, तिसको कहिये, तू मेरी तप्त शांत करु, तौ कहनेवाला मूढ होता है, वह आप जलता है, अपरकी तप्त कैसे शांत करेगा, तैसे वह आप इंद्रियों के विषयकी तृष्णारूपी अग्निविषे जलते हैं। सो तुझको शांत कैसे करेंगे ? ॥ ॥ हे मार्गके मित्र ! एते कष्ट होहिं तौ अंगीकार करिये परंतु अज्ञानीका संग न कारये सो कौन दुःख होहिं कि पृथ्वीके छिद्रविषे सर्प हो रहना, अरु मरुस्थलका टुटा मृग हो रहना, अरु पाषाणको शिलाविषे कीट हो रहना एते कष्ट अंगीकार करिये परंतु अज्ञानीको संग न करिये, जिनको इंद्रियोंके सुखकी तृष्णा रहती है, सो इंद्रियों के सुख कैसे हैं, जो आपातरमणीय हैं, अर्थ यह कि, जबलग इंद्रियोंका विषयसाथ संयोग है, तबलग सुख है, जब वियोग हुआ, तब दुःख होता है, विषयीजनकी प्रीति भी विषवत् है, अरु विचारवती बुद्धिरूपी कमलिनीके नाश करनेहारी बफ है, बहुरि इनकी संगति कैसी हैं, जिनके वचनरूपी पवनकारि राख उडती पास बैठनेहारेको भी अंध कर डारती हैं, ताते इन गावँवासी अज्ञानीका संग नहीं करना, बहुरि कैसे हैं, विचारवती बुद्धिरूपी सूर्यके आवरण करनेहारे बादल हैं, जैसे वल्लीपर अग्नि डारिये तौ जलाती है, तैसे वैराग्यको ग्रहण करनेहारी बुद्धि है, तिसके नाश करनेहारी इनकी संगति है, ताते इनका संग नहीं करना ॥ हे साधो ! तिसका संग कर जिसके संगकार तेरा ताप भिटै, इनके संगकार शांति