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सुखेनयोगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३३१) अभाव कदाचित नहीं होता, अरु जो असत है, सो सत् नहीं होता, यद्यपि होनेकी भावना करिये तो भी उसका होना नहीं, जैसे अग्निको जानिकार स्पर्श करिये तो भी जलावती है, अरु अजानि स्पर्श कारिये तो भी जलावती है. काहेते कि, सत् है, अरु जैसे मृग जलकी भावना कार मरुस्थलविर्षे धावता हैं, परंतु जल नहीं पाता. काहेते कि, असत्य है, तैसे ॥ हे रामजी ! अहंकार जो फुरता है, सो असत्य है, भ्रमकार सिद्ध है, विचारकरि नष्ट हो जावैगा ॥ हे रामजी । यह अहंकाररूपी कलंक उठा है, जब निरहंकारकार देखे, तब मुक्तरूप हैं, अरु जब अहंकारसंयुक्त हैं, तब बंध है, ताते निरहंकार होकर परम निर्वाणको प्राप्त होहु यह मेरा सिद्धांत है, परमभूमिका यही है जैसे पूर्णमासीका चंद्रमा शोभता है तैसे तुम ब्राह्मी लक्ष्मीकार शोभहुगे । हे रामजी ! ज्ञानवान्का चित्त सत्पको प्राप्त होता है, ताते अहंकार नहीं रहता, तिसके चित्तकी चेष्टा फलदायक नहीं होती, जैसे भूना बीज नहीं उगता तैसे उसको जन्मफल नहीं होता, अरु अज्ञानीका चित्त जन्ममरणका कारण होता है, जैसे कच्चा बीज उगता है जैसे अज्ञानीकी चेष्टा जन्मफल देती है ॥ हे रामजी ! जेते कछु पदार्थ हैं, तिन सबते निराश हो रहु, जो हृदयविषे अभिलाषा किसीकी न फुरै, अरु न किसीका सद्भाव फुरै, पाषाणकी नाईं तुम्हारा हृदय होवै ॥ हे रामजी । जिसका हृदय कोमल है, स्नेहसंयुक्त सो अज्ञानी है, अरु जिसका हृदय पाषाण समान है, स्नेहते रहित, सो ज्ञानी हैं, ताते निर्मन निरहंकार होकार स्थित होहु. यह भोग मिथ्या है, इनकी इच्छाविषे सुख नहीं ॥ हे रामजी ! जब संसारते उपरांत होवैगा, अरु अंतर्मुख आत्मपरायण होवैगा, तब अहंकार निवृत्त हो जावैगा, अरु आत्मा भासैगा, जैसे वसंतऋतु आती है, अरु वृक्ष प्रफुल्लित होते हैं, तब पुरातन पत्र त्यागि देते हैं, अरु नूतन हो आते हैं, तैसे जब तुम अंतर्मुख होहुगे, तब अहंकार निवृत्त हो जावैगा, अरु विभुताको प्राप्त होगे, तुच्छ जो अहंप्रत्यय सो जात रहेगी, परमनिर्वाण पद पावोगे