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ज्ञानज्ञेयविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

करते हैं, कई गृह विषे स्थित हैं, कई तीर्थ यज्ञ करते हैं, कई नौबत नगारे तुरीयां सुनते हैं, इत्यादिक नानाप्रकार कई स्थानविषे रहते हैं, परंतु आसक्त कोई नहीं होते, जैसे सुमेरु पर्वत तालविषे नहीं डूबता, तैसे ज्ञानवान् किसी पदार्थविषे बंधमान नहीं होते इष्टको पायकरि हर्षवान् नहीं होते, अनिष्टको पायकरि दुःखी नहीं होते, आपदा संपदाविषे तुल्य रहते हैं, प्रकृत आचार कर्मको करतेहैं, परंतु अंतर सर्व आरंभते रहित है॥ हे राघव। इस दृष्टिको आश्रय करिकै तुम भी विचरौ यह दृष्टि सर्व पापका नाश करती है, अहंकारते रहित होकरि जो इच्छा होवै सो करौ, जब यथाभूतदर्शी हुए तब निबंध हुए, जो कछु पतित प्रवाहकार आय प्राप्त होवैं, तिसविषे सुमेरुकी नाईं तुम अचल रहोगे॥ हे रामजी! यह सब जगत् चिन्मात्र है, न कछु सत्य है, न असत्य है, वही इसप्रकार होकार भासता है, इस दृष्टिको आश्रय करिकै अपर तुच्छ दृष्टिको त्यागहु॥ हे रामजी! असंसक्तबुद्धि होकरि सर्व भावअभावविषे स्थित होकरि रागद्वेषते चलायमान नहीं होवैगा, अब सावधान होहु॥ राम उवाच॥ हे भगवन्! बडा आश्चर्य है, मैं तुम्हारे प्रसादकरि जानने योग्य पद जाना है, अरु प्रबुद्ध हुआ हौं, जैसे सूर्यकी किरणों कार कमल प्रफुल्लित होते हैं, जैसे शरत्कालविषे कुहिड नष्ट हो जाती है, तैसे तुम्हारे वचनकार मेरा संदेह नष्ट हुआ है. मान, मोह, मद, मत्सर सब नष्ट होगये हैं, मैं अब सर्व क्षोभते रहित शांतिको प्राप्त भया हौं॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे षष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तिनिश्चयवर्णनं नामैकादशः सर्गः ॥११॥



द्वादशः सर्गः १२.

ज्ञानज्ञेयविचारवर्णनम्।

राम उवाच॥ हे भगवन्! सम्यक‍्ज्ञान विलासकरि वासना उदय होती है, सो जीवन्मुक्तिपदविषे किसप्रकार विश्रांति पाइयै सो कहौ॥ वसिष्ठ उवाच॥हे रामजी! संसार तरणेकी युक्ति है, सो योगनामी है, सो