पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३४

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अहंकारासत्ययोगौपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३१५) करि उपजता है, यह हृदयशुद्धिकी बात है, जिसका हृदय शुद्ध होताहै, तिसको गुरु शास्त्रोंका वचन शीग्रही लगता है,जैसे जल नीचेको स्वाभाविक जाता है, तैसे शुद्ध हृदयविषे उपदेश शीघ्रही प्रवेश करता है ॥ हे रामजी ! ऐता उपदेश क्रमकरिकै तुझको किया है, तिसका तात्पर्य यह कि, फुरणेका त्याग करु कि,ना मैं हौं, न कोऊ जगत् है, तब पाछे निर्विकल्प केवल आत्मपद रहेगा, जो सर्वका अपना आप हैं, तिसका साक्षात्कार तुझको होवैगा, जैसे मलिन दर्पणविषे मुख नहीं दीखता, तैसे आत्मरूपी दर्पण अहंरूपी मलकार आच्छादित है, जब इसका त्याग करौ, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी,अरु जगत् भी अपना आप भासैगा कि आत्माते इतर कछु नहीं, काहेते कि, इतर कछु नहीं, केवलं आत्मत्वमात्र है, अरु अपरजो कछु भासता है, सो मृगतृष्णाके जलवत् जान, अरु बंध्याके पुत्रवत् जान, यह जगत् आत्माके प्रमादार भासताहै, जैसे आकाशमें नीलता भासती है, अरु है नहीं, तैसे जगत् प्रत्यक्ष भासताहै, अरु है नहीं, जैसे जेवरीविषे सर्प मिथ्याई, तैसे आत्माविषे जगत् मिथ्या है, जब आत्माका ज्ञान हुआ तब जगका अत्यंत अभाव होवैगा, केवल आत्मत्त्व मात्र अपना आप भासैगा ॥ इति श्रीयो० निव० भुशुण्डिविद्याधरोपाख्यानसमाप्तिनम शताधिकनववि० सर्गः ॥ १३९॥ शताधिकचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४०. अहंकारासत्ययोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! तू अहेवेदनाते रहित होहु, संसाररूपी वृक्षका बीज अहही है, वासनाकरिकै शुभ अशुभरूप कर्मका सुख दुःख फल है, अरु वासनाहीकार प्रफुल्लित होता है, ताते अहंभावको निवृत्त करौ, जब अहं फुरता है, तब आगे जगत भासता है, जब अहंताते रहित होवैगा, तब जगद्धम मिटि जावैगा, सो अहंता आत्मबोधकार नष्ट होती है, आत्मबोधरूपी खंभाणीकार उड़ाया अहंतारूपी पाषाण जानियेगा