पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२५

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(१३०६) योगवासिष्ठ । भूषण भी स्वर्ण भासते हैं, तैसे केवल सत्ता समानपद एक अद्वैत है, इतर कछु नहीं. भिन्न भिन्न संज्ञा भी वही है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निवाणप्रकरणे सर्गोपसर्गोपदेशो नाम शताधिङ्गपंचत्रिंशत्तमः सर्गः ॥१३॥ = = = शताधिकषत्रिंशत्तमः सर्गः १३६.

  • यथाभूतार्थभावरूपयोगोपदेशवर्णनम् । शुशेड उवाच ॥ हे विद्याधर ! जब यह आत्मपदको प्राप्त होता - है, तव इसकी अवस्था ऐसी होती है, जो नग्न शरीर होवे, अरु तिसपर बहुत शस्रॉकी वर्षा होवे, तिसकार दुःखी नहीं होता, अरु सुंदर अप्सरा कंठसे मिलै त तिनकार हर्षवान् नहीं होता, दोनोंहीविर्षे तुल्य रहता है ।। हे विद्याधर ! तवलग यह पुरुष आत्मपदका अभ्यास करै, जवलग असारते सुषुप्तिकी नई नहीं होता, अभ्यासहीकरि आत्मपदुको प्राप्त होवैगा, जव आत्मपकी प्राप्ति भई, तब पांचभौतिक शरीरके ज्वर स्पर्श न करेंगे, यद्यपि शरीरावि प्राप्ति भी होवै तौ भी तिसके अंतर प्रवेश नहीं करते, केवल शांतपदविषे स्थित रहता है। विद्यमान भी लगते हैं, तो भी स्पर्श नहीं कर सकते, जैसे जलविझे कमलको स्पर्श नहीं होता ॥ हे देवधुत्र ! जबलग देहादिङ्कविचे अध्यास है, तबलग इसको सुख दुःश्व स्पर्श करते हैं, आत्माके प्रमादार, जब

आत्माका साक्षात्कार हुआ, तब सर्व प्रपंच भी आत्मरूप भासैगा । हे विद्याधर ! जैसे कोऊ पुरुष विषपान करता है, तब उसको ज्वलनता अरु खांसी होती है, यह अवस्था विपकी हैं, सो विषते इतर कछु नहीं, परंतु नाम संज्ञा हुई है, न विष जन्मती है, न मरती है, अरु धूप खांसी उसविषे दृष्ट आई है, तैसे आत्मा न जन्मता है, न सरता है, अरु गुणोंके साथ मिलकार अवस्थाको प्राप्त हुआ दृष्ट आता है, आत्मा जन्ममरणते रहित है, अरु गुण व संकल्पके साथ मिलनेकर जन्मता मरता भासता है, अंतःकरण अरु देह इंद्रियाँदिक भिन्न भिन्न भासते हैं ॥ हे साधो ! यह जगत् भ्रमकार भासता है, जो ज्ञानवान् पुरुष है सो इस