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विद्याधरवैराग्यवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६, (१२९५ ) कलना दिखाई देती है, आत्मा ब्रह्म निराकार निरंजन इत्यादिक नाम भी अहंकारकरिकै शुद्धविषे कल्पे हैं, सो अफ़र केवल सत्तामात्र हैं, सत् अरु असत्की नाईं स्थित हैं ॥ हे रामजी ! संसाररूपी मिर्चका बुटा है, अरु संसाररूपी फूल हैं, अहंतारूपी तिसविषे सुंगधि है ॥ हे रामजी। जब अहंता उदय हुई, तब संसार उदय होता है, अरु अहंताके नाश हुए संसारनाश हो जाता है, क्षणविषे उदय होता है, अरु क्षणविषे नाश होता है, सो अहंताका होनाही उदय होनेका क्षण है, अरु अहंताका लीन होना सो नाशका क्षण है ॥ हे रामजी ! जैसे मृत्तिकाको जलका संयोग होता है, तिसंकरि घट बनता है, तब वृतिका घटसंज्ञाको पाती है, तैसे पुरुषको जब अहंकारका संग होता है, तब संसारी होता है। अरु जीवसंज्ञाको पाता है, देश काल पृथ्वी पर्वत आदिक दृश्यको प्रत्यक्ष देखता है, जब अहंता नाश होवै, तब सुखी होता है, जेता कछु नामरूप है, अरु तिसका अर्थ है, सो अहंताकर भासता है, जब अर्हताको त्यागै, तब शतरूप आत्माही शेष रहैगा, जैसे पवनते रहित दीपक प्रकाशता है, तैसे अहंकाररूपी पवनते रहित अपने स्वभावविषे स्थित होता है, आनंद अरु पदको प्राप्त होता है, अरु अनादि पद अपनेको प्राप्त होता है, अरु सवैका अपना आप होता है, देश काल वस्तु अपनेविष देखता है ॥ हेरामजी ! जबलग अर्हताका नाश नहीं होता तबलग मेरे वचन हृदयविषे स्थित न होवेंगे । हे रामजी ! जिस पुरुषने अपना स्वभाव नहीं जाना तिसको ब्रह्म पाना कठिन है, जैसे रेतविषे तेल निकसना कठिन है, तैसे उसको ब्रह्मका पाना कठिन है, अरु अपना स्वभाव जानना अति सुगम है, जब अहंताका त्याग करै कि, न मैं हौं, न जगत् है, जब कल्याण हुआ, तब अहंताका नाश होता है, तब भ्रम कोऊ नहीं रहता, जैसे जैवरीके जाने सर्पभ्रम निवृत्त होजाता है, जबलग अहंता फुरती है, तबलग उपदेश इसका नहीं लगता, जैसे आरसीके अपर मोती नहीं ठहरता, उसके हृदयविषे मेरे वचन नहीं ठहरते,अरु जिसका हृदय शुद्ध है, तिसको मेरेवचन लगते हैं, जैसे तेलकी बूंद जलविषे विस्तारको पाती है; तैसे उसको थोडा वचन भी बहुत हो लगता है । हे रामजी । इसपर एक पुरा हे