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योगवासिष्ठ।

बड़े दर्पणविषे जैसी कोऊ भावना करता है, तैसा रूप हो भासता है, मन भावनामात्र है, दुर्वासना करिकै इसका स्वरूप आवरण भया है, जब भावना नष्ट होती है, तब निष्कलंक आत्मतत्त्व भासता हैं जैसे शुद्ध वस्त्रऊपर केसरका रंग शीघ्रही चढ़ जाता है तैसे वासनाते रहित चित्तविषे ब्रह्मस्वरूप भासि आता है॥ हे रामजी! आत्मा सर्व कलनाते रहित है अरु तीनों कालविषे नित्य शुद्ध समांतरूप है, जिसको ज्ञान होता है, सो ऐसे जानता है, कि मै ब्रह्म हौं, सदाकाल सर्वविषे सर्व प्रकार, सर्व घटपटादिक जो जगज्जाल है, सो मैंही ब्रह्म आकाशवत् सर्वविषे व्यापि रहा हौं, न कोऊ मुझको दुःख है, न कर्म है, न किसीका त्याग करता हौं, न वांछा करता हौं सर्व कलनाते रहित निरामय हौं, मैंही रक्त हौं, मैंही पीत हौं, मैंही श्वेत हौं, मैंही श्याम हौं रक्त मांस अस्थिका वपु भी मैंही हौं, घटपटादिक जगत् भी मैंही हौं, तृण वल्ली फूल गुच्छे टास मैंही हौं, वन पर्वत समुद्र नदियां मैंही हौं, ग्रहण करना, त्याग करना, संकुचना, भूतशक्ति सब मैंही हौं, विस्तास्तारको प्राप्त मैंही भया हौं. वृक्ष, वल्ली, फूल, गुच्छे जिसके आश्रय फुरतेहैं, सो चिदात्मा मैंही हौं, सबविषे रसरूप मैंही हौं, जिसविषे यह सर्व है, जिसते यह सर्व है, सो सर्व है, जिसको सर्व है, ऐसा चिदात्मा ब्रह्म है, सोमैंही हौं॥ चेतन आत्मा ब्रह्म सत्य अमृत ज्ञानरूप इत्यादिक जिसके नाम हैं, ऐसा सर्वशक्त, चिन्मात्र चैत्यते रहित मैं, हौं, प्रकाशमात्र निर्मल सर्व भूतप्रकाशक मैंही हौं, मन बुद्धि इंद्रियोंकास्वामी मैं हौं, जेती कछु भेदकलना है, सो इनने करी थी अब इनकी कलनाको त्यागिकरि अपने प्रकाशविषे स्थित हौं, चेतन ब्रह्म निर्दोष हौं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध सब जगत‍्का कारण है, तिन सबका चेतन आत्मारूप ब्रह्म निरामय मैंही हौं, अविनाशी हौं, निरंतर स्वच्छ आत्मा प्रकाशरूप मनके उत्थानते रहित मौनरूप मैं हौं, परम अमृत निरंतर सर्व भूतके सत्तारूप कारकै मैंही स्थित हौं, सदा अलेपक साक्षी सुषुप्तिकी नाईं हौं, द्वैतकलनाते रहित अक्षोभरूपानुभव मैंही हौं, शांतरूप सब जगत‍्विषे मैंही पसार रहा हौं सर्व वासनाते