पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०७

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( १२८८ ) योगवासिष्ठ । रुधिर श्वास वासना इसविषे रस हैं, अरु सुख दुःख इसके फूल हैं, अरु जाग्रत् कमें वासनारूपी वसंतऋतु हैं, तिसकार प्रफुल्लित होते हैं, अरु सुषुप्ति पापकर्मरूपी इसको शरत्काल हैं, तिसकरि सूख जाता है, ऐसा शरीररूपी वृक्ष है, बहुरि कैसा है, तरुणपवनरूपी कली है, क्षणका क्षण सुंदर है, जरारूपी फूल इसको हंसते हैं, अरु रागद्वेषरूपी वानर क्षण क्षणविषे क्षोभते हैं, जाग्रतरूपी इसको वसंत ऋतु है, अरु सुषुप्तिरूपी हिम करती है, अरू वासनारूपी रसकार बढ़ता है, अरु पुत्र कलत्र आदिक यह तृण घास हैं, अरु इंद्रियोंके गढ़रूपी तिसका सुख है, इनकरि शरी की चेष्टा होती है, ज्ञानइंद्रियों इसके पंच स्तंभ हैं, इनकार वृक्ष धारा है, अरु इच्छा इसविषे बेलें हैं, जो अपने अपने विषयको चाहती हैं, अरु बड़ा स्तंभ इसका मन हैं, जो सर्वको धारता है, अरु पंच प्राण इसके रस हैं, प्रत्यक्ष अनुमान शब्द इनकार सर्वको ग्रहण करता है, आगे इनका बीज जीव है, जीव कहिये चैत्योन्मुखत्वचेतन, अरु जीवका बीज संवित है, जो मात्रपदते उत्थान हुआ है, तिस संवितुका बीज ब्रह्म है, तिसके बीज आगे कोऊ नहीं ॥ हे भगवन् ! सबका सूल संविका ऊरणा है, जब इसका अभाव हुआ, तब शेष आत्माही रहा है। हे भगवन् ! यहे तो मैं जानता हौं, आगे कछु कृपा कारे तुम कहौ ॥हे भगवन्! जबलग चित्तसाथ संबंध है, तबलग संसारविषे जन्म मृत्यु पाताहै, जब चित्तते रहित हुआ तब परब्रह्म है, सो शिवपद हैं, अनिच्छित है, शान्तहै। अनंत रूप हैं, चिन्मात्रविषे जो अहंका उत्थानहै, सोई कर्मरूपी वृक्षका कारणहै, जबलग अनात्मासाथ मिलकर कहताहै, मैं हौं ऐसा जानता है, सो संसारका कारण है, यह तुम्हारे वचनकार समझा है, सो प्रार्थना करी है, आगे कछु कृपाकरि तुम कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । इसी प्रकार कर्मका बीज सूक्ष्म संवित है, जबलग संवित है, तबलग कमका बीज नाश नहीं होता,अरु यह सब संज्ञा इसकी हैं,कमका बीज कहिये, इच्छा कहिये, तृष्णा कहिये, अज्ञान कहिये, चित्त कहिथे, इत्यादिक्क बहुत संज्ञा हैं, अपर क्या किसीविषे हेयोपादेय बुद्धि करै ॥