पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०५

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(१२८६) योगवासिष्ठ । दोनोंको त्यागिकार स्वरूपविषे स्थित होहु, अरु ऐसा भी निश्चय न होवै, जो मैं त्याग कियाहै । हे रामजी ! जिस पुरुषने कर्मका त्याग किया है अरु अहंकारसाथ है, तौ पुण्य अरु पाप तिसने सब कछु किया है, अरु जिसविषे अहंभाव नहीं, सो भावै तैसे कर्म करै, तो भी कछु नहीं किया, सो बंधनको नहीं प्राप्त होता, जो कर्मविषे आपकोअकर्ता जानता है, अरु अकरणविषे अभिमानसहित हैं. तिसको करता देखते हैं, सो बंधवान् है । हे रामजी! ऐसे आत्माको जानकार अहममका त्याग करौ, ऐसे संवेदनके त्यागनेविषे यत्न कछु नहीं, स्मृति तिसकी होती है, जिसका अनुभव होता है, जिसका अनुभव न होवै, तिसका त्याग करना सुगम है, अनुभव कहिये प्रत्यक्ष देखना विश्व तेरे स्वरूपविषे है नहीं, तौ अनुभव क्या होवै, यह पदार्थ जो तेरे तांई भासते हैं, तिनके कारणको जान, इनका कारण अनुभवहै, जो अनुभवही इनका मिथ्या हैं, तो स्मृति सत् कैसे होवै १ जेवरीविषे सर्पका अनुभव हुआ बहुरि स्मरण किया जो वहाँ सर्प देखा था, जो सर्पका अनुभवही मिथ्या हैं, बहुरि उसका स्मरण सत्र कैसे होवै, ताते जो वस्तु मिथ्या है,तिसके त्यागनेविषे क्या यत्न है, जब प्रपंचको मिथ्या जाना तब तुमको कोङ क्रिया बंधन न होवैगी, चेष्टा स्वाभाविक होवैगी अरु रागद्वेष चलता रहैगा, जैसे शरत्कालकी वल्ली सूख जाती है, अरु आकार उसका हृष्ट आता है, तैसे तुम्हारा चित्त देखनेमें आवैगा, अरु चित्तका धर्म जो राग द्वेष है, सो चलता रहूँगा, वह चित्त सत् पदको प्राप्त होवैगा,जब सर्व विस्मरण होवैगा तिसको शिवपद कहते हैं, सो परमपद है, अरु ब्रह्म है, शब्द अर्थते रहित केवल चिन्मात्र अद्वैत पदहै, अहंममका त्याग करके तिसविषे स्थित होड, अरु संसार इसीका नाम है, जो अहं हौं, अरु यह मेरा है, इसकोत्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होहु ।। हे रामजी ! जबलग अहं मम यह संवेदन है, तबलग दुःख नहीं मिटते, जब यह संवेदन मिटी, तब आनंद है। आगे जो इच्छा है, सोकरी ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे इच्छाचिकित्सोपदेशवर्णनं नाम शताधिकाष्टाविंशतितमः सर्गः ॥ १२८ ॥