पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१२७२ ) • योगवासिष्ठ । किया तो भी उसको भासि आताहै,काहेते कि, वह भी इसकी वासनाविषे स्पंद है । हे राजन् ! जो अज्ञानी जीव हैं, जिनको अनात्मविषे आत्मबुद्धि है, तिनके कर्म कहाँ गये हैं, जो वह कार्य करते हैं, सोई उनके चित्तरूपी भूमिविर्षे पड़े उगते हैं, उनके शरीरकी क्या संख्या है, अनेक वासनारूपी ज्ञानविना स्वप्नवत् शरीर धारते हैं। बलिरुवाच ॥ हे देवगुरु यह निश्चयकर मैं जाना है कि, जिसको निष्कि चनकी भावना होती है, सो नीष्किचन पदको प्राप्त होता है, अरु संसारकी औरते शिलाकी नई हो जाता है, जैसी इसकी भावना होती हैं, तैसा स्वरूप हो जाता है, जब संसारते पत्थरवत् होवे, तब मुक्त ओवै ॥ बृहस्पतिरुवाच ॥ हे राजन् । निष्किचनको जब जानता हैं, तब संसारकी औरते जड होता है, राग द्वेष संसारका नहीं फुरता, इसीका नाम जड है, अरु केवल सार पदविपे स्थित होता है, जब गुण इसको चलाय नहीं सकै, तब जानिये कि निष्किचन पदको प्राप्त हुआ है, सोई निःसंदेह मुक्ति है । हे राजन् ! जबलम् संसारकी सत्यता चित्त विषे स्थित है, तबलग इसको वासना है, जबलग वासना है, तबलग संसार है, अरु संसारके अभावविना इसको शांति नहीं प्राप्त होती, सो स्वरूप प्रमाकरि, चित्त हुआ है, चित्तते वासना हुई है, अरु वासनाते संसार हुआ है, ताते इस वासनाको त्यागिकार कोऊ फुरणा ने फुरै, निकिचन भाव हो जावै, तब शांतभागी होवे । हे राजन् ! जिस युक्तिसाथ, जिस क्रमसाथ यह निश्चिनरूप होवे, सोई करै । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! इसप्रकार सुरपुरविषे असुरनायकको सुरशुरुने कहा था, सो मैं तेरे आगे पिंडदानादिकका क्रम कहा है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे बृहस्पतिबलिसंवादवर्णनं नाम शताधिकद्वाविंशतितमः सर्गः ॥ १२२ ।।