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जगत्अभावप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२६५) सर्वदा सर्वप्रकार सर्व ओरते ब्रह्मही है, दूसरा कछु नहीं ॥ हे रामजी ! जब स्वरूपकी भावना हुई, तब संसारकी भावना जाती रहती है, यह सर्व शब्द कलनाविषे है, यह पदार्थ हैं, यह नहीं, आत्माविष कोऊ नहीं, जैसे पवन चलने ठहरनेविषे एकही है, तैसे विश्व चित्तका चमत्कार है, ब्रह्मादि चींटीपर्यंत ब्रह्मसत्ताही अपने; आपविषे स्थित हैं, अरु आत्माहीके आश्रय सर्व शब्द ऊरते हैं, ऊरणेविषे सम हैं, काहेते जो दूसरा कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! जो ब्रह्मसत्ताही है यह प्रश्न क्या है, आकाश क्या है, पृथ्वी क्या है, मैं क्या हौं, यह जगत् क्या है, यह प्रश्न बनतेही नहीं, एक मुनको स्थिरकार देख, जो ब्रह्मा आदि चींटीपर्यंत कछु भी पदार्थ भासै तौ प्रश्न कारये ताते यह पदार्थ भ्रमकारकै भासते हैं, जैसे दूसरा चंद्रमा भासता है, तैसे भ्रमकारकै भासता है, रूप अवलोक नमस्कार इनके शब्द कलनाविषे फुरे हैं, रूप कहिये दृश्य, अवलोक कहिये इंद्रियां, नमस्कार कहिये मनका कुरणा, सो सर्व मिथ्या है, आत्माविषे कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! आकाश आदिक जो पदार्थ हैं, सो भावनाविषे स्थित हुए हैं, जैसी भावना कराती है, तैसे पदार्थ सिद्ध होता है, अरु भासता है, ज, संसारकी भावना उठि जावै, तब पदार्थ कोऊ न भासै । हे रामजी ! सुषुप्तिविषे भी इसका अभाव हो जाता है तौ तुरीयाविषे कैसे भान होवे, जब स्वरूपते गिरता हैं, तब इसको संसार भासता है, अरु संसारविषे वासनाकारकै घटीयंत्रकी नाईं फिरता है, प्रमादकारकै अबलग बहता जाता है, प्रमाद कहिये स्वरूपते उतारिकार आत्माविषे अभिमान करना, जो मैं हौं सो अज्ञान है, तिसकरिकै दुःख पाता है, जब अज्ञान नष्ट होवै, तब संसारके शब्द अर्थका अभाव हो जावे, अहंकारते संसार होता है, संसारका बीज अहंकार है, अहंकार कहिये अनात्माविषे आत्माभिमान करना । हे रामजी ! आत्मा शुद्ध है अहंके उत्थानते रहित हैं, केवल शतिरूप है अरु विश्व भी वहीरूप है, इसकी भावनाविषे दुःख - है, यह संवित्शक्ति आत्माके आश्रय फुरती है, तैसे तेलकी बूंद जलविषे डारिये तौ चक्रकी नाईं फिरती है, तैसे संवेदनशक्ति आत्माके