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विश्वप्रमाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२६१ ) दोनों नहीं अरु यह जो तेरे ताई पदार्थ सत् भासते हैं, तौ अग्नि आदिक शीतल भी सत्य हैं, अरु जो यह मिथ्या भासते हैं, तो वह भी मिथ्या तीव्र अरु मृदु संवेगका भेद है, तीव्र संवेग जब दूर हुआ तब सब मिथ्या मानते हैं, जैसे स्वप्नते जागा तब स्वप्नको मिथ्या कहता है, अरु जाग्रत्को सव कहता है, दोनों मनोराज्य हैं ॥ हे रामजी । जैते कछु आकार दृष्ट आते हैं, सो सब मिथ्या जान, न तू है न मैं हौं, न यह जगत् है, परमार्थसत्ता ज्योंकी त्यों है, तिसविषे अहं त्वं का उत्थान कोऊ नहीं, केवल शांवरूप है, आकाशरूप अरु निराकाशरूप है, जिसविषे द्वैत कछु नहीं, केवल अपने आपविषे स्थित है, जैसे बालक मृत्तिकाके हस्ती घोड़े मनुष्य बनाता है, अरु नाम करुपता है. यह राजा है, यह हस्ती है, यह घोड़ा है, सो मृत्तिकाते इतर कछु नहीं, अरु बालकके मनविसे उनके नाम भिन्न भिन्न दृढ होते हैं, तैसे मनरूपी बालक नानाप्रकारकी संज्ञा कल्पता है, अरु आत्माते इतर कछु नहीं, ताते भय किसका करता है, तू निर्भय होउ, तेरा स्वरूप शुद्ध है, अरु निर्भय है, अविद्याके कारण कार्यते रहित हैं, तिसविषे स्थित होउ, यह संसार तेरे ऊरणेविषे हुआ है, आत्मा न सत्य कहिये, न असत्य कहिये, न जड़ कहिये, न चेतन कहिये, न प्रकाश है, न तम है, न शून्य है, न अशून्य है, अरु शास्त्रने जो विभाग कहे हैं, यह जड हैं, चेतन हैं, सो इस जीवके जगाने निमित्त कहे हैं, आत्माविषे वास्तव संज्ञा कोऊ नहीं, केवल आत्मत्वमात्र है, ताते हश्यकी कलना त्यागिकार आत्माविषे स्थित होउ, ब्रह्माते आदि स्थावरपर्यंत सर्व कलनामात्र है, इसविषे क्या आस्था करनी, संसारके भाव दोनों तुल्य हैं, ऊरणा जैसा भावका है, तैसा अभावका है, स्वरूपविषे दोनोंकी तुल्यता है, अरु व्यवहारकालविषे जैसा है, तैसाही है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्वप्रमाणवर्णने नाम शताधिकाष्टादशः सर्गः ॥ ११८ ॥