पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३६८

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विश्ववासनारूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२४९ ) इसका अभिमान नहीं रहता, जैसे शुद्धमणि प्रतिबिंबको ग्रहण भी करती है, परंतु रंग कोऊनहीं चढता ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे तृतीयभूमिकाविचारवर्णनं नाम शताधिकत्रयोदशः सर्गः ॥ ११३ ॥ शताधिकचतुर्दशः सर्गः ११४, विश्ववासनारूपवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने भूमिका वर्णन करी तिसविषे मेरे ताई यह संशय है कि, जो भूमिकाते रहित हैं, अरु प्रकृतिके सन्मुख हैं, तिनको भी कदाचित् ज्ञान उपजैगा, अथवा न उपजैगा, अरु जिसने एक भूमिका पाई होवै, अथवा दो भूमिका पाई होवें, अथवा तीसरी भूमिका पाई होवै, और शरीर तिसका छूट गया, अरु आत्मपदका साक्षात्कार न भया, अरु स्वर्गादिककी उसको कामना भी नहीं तब वह किस गतिको प्राप्त होता है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! पुरुष जो विषयी हैं, तिनको ज्ञान प्राप्त होना कठिन है, वह वासनाकरिकै घटीयंत्रकी नाईं फिरते हैं, कबहूँ स्वर्ग, कबहूँ पाताल जाते हैं, अरु दुःख पाते हैं, कदाचित् अकस्माद काकतालीयन्यायकी नाईं उसको संतका संग, अरु सच्छास्त्रोंका श्रवण करना यह वासना आय फुरती है, अरु जैसे मरुस्थलविषे वल्ली लगनी कठिन है, तैसे जिस पुरुषको आत्माको प्रमाद हैं, अरु भोगकी भावना है, तिसको ज्ञान प्राप्त होना कठिन है, परंतु जब अकस्मात् संतके संगते तिसको वैराग्य उपजता है, अरु बुद्धि उसकी निवृत्तिकी ओर आती है, तब भूमिकाद्वारा ज्ञान तिसको प्राप्त होता है, तब मुक्त होता है । हे रामजी ! यह भावना अकस्मात् उपजेविना योनिविषे भ्रमता है, अरु जिसको एक अथवा दो भूमिका प्राप्त भई हैं, अरु शरीर तिसको छूट गया, तब अपर जन्म पायकार ज्ञानको प्राप्त होता है, पिछला संस्कार जागि आता है, अरु दिन दिन बढ़ता जाताहै, जैसे बीजते वृक्षका अंकुर होता हैं, बहुरि टास फूल फलकार बढ़ता जाता है, तैसे उसको अभ्यासका