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निर्वाणवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. १ १२४१) संकल्पसृष्टि अपनी अपनी है, अरु जो पुरुष ऐसे चिंतवता है कि, मैं उसकी सृष्टिको जानौं तब जानता हैं ॥ हे रामजी! आत्मा कल्पवृक्ष है, जैसी कोऊभावना करता है तैसी सिद्धि होती है, जब ऐसीही भावना कारकै स्वरूपविषे जुड़ता है, जो सब सृष्टि मेरे तांई भासै तौ भावना कारकै भासि आती है, अरु ज्ञानी ऐसी भावना नहीं करता, काहेते कि, आत्माते इतर कोऊ पदार्थ नहीं जानता, अरु जानता है, जो स्वरूपते सबकी एकता है, अरु संकल्परूपकार एकता नहीं होती, जैसे तरंगोंकी एकता नहीं, अरु जलकी एकता है, अरु जो एक तरंग दसरेके साथ मिलि जाताहै, तो उसके साथ एकता होतीहै, तैसे एक संकल्प भावनाकार दूसरेके साथ मिलता है, ताते ज्ञानी जानता हैं, संकल्परूप आकार नहीं मिलते, अरु स्वरूपकार सबकी एकता है, अरु जिसकी भावना होती है कि, मैं इसकी सृष्टिको देखौं, तब उसके संकल्पसाथ अपना संकल्प मिलायकारि देखता है, तब उसकी सृष्टिको जानता हैं, जैसे दो मणि होवें, तिनका प्रकाश भिन्न भिन्न होता है, जब दोनों इकट्ठी राखिये, एकही ठौरविषे तब दोनोंका प्रकाश भी इकट्ठा हो जाता है, जैसे संकल्पकी एकता भावनाकार होती है, अरु ज्ञानीको प्रथम संकल्प हुआ होवै कि, मैं उसकी सृष्टिको देखौं तौ संकल्पकार देखता है, अरु ज्ञानके उपजेते वॉछा नहीं रहती ॥ हे रामजी ! इच्छा चित्तका धर्म है, जब चित्तही नष्ट हो गया, तब इच्छा किसकी रहे, जब स्वरूपका प्रमाद होता है, तब चित्तरूपी दैत्य प्रसन्न होता है, कि, यह मेरा आहार हुआ, मैं इसका भोजन कराँगा ॥ हे रामजी ! जो पुरुष चित्तकी ओर हुआ अरु स्वरूपकी भावना न भई, तब चित्तरूपी दैत्य जन्मरूपी मनविषे फिरता है, अरु तिसका भोजन करता रहता है, जो उसका पुरुषार्थ नाश करता है, अरु आत्मभावनावाली बुद्धि उत्पन्न होने नहीं देता, जैसे वृक्षको अग्नि लगै, तब बहुरि उसविषे फल नहीं पड़ते, तैसे पुरुषार्थरूपी वृक्षको भोगरूपी अग्निलगी,तब शुद्धबुद्धिरूपी फल उत्पन्न नहीं होता।।हेरामजी चित्त आत्माविषे जोड़,विषयकी ओर जाने न देवहु, यह चित्त दुष्ट है, जब इसको स्थिर करोगे, तब