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अविद्याचिकित्सावर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

की मूर्ति कछु दृष्ट नहीं आती, जैसे उष्णता करिकै घृतका लौदा गलि जाता है, तैसे आत्माके दर्शन हुए अविद्या नहीं रहती, अरु वास्तवते अविद्या कछु वस्तु नहीं, अविचारते सिद्ध है, विचार कियेते लीन हो जाती है, जैसे प्रकाशकरि तम लीन होजाता है, तैसे विचारकरि अविद्या लीन हो जाती है, अज्ञानकरि अविद्याकी प्रतीति होती हैं जबलग आत्मतत्त्वको नहीं देखा, तबलग अविद्याकी प्रतीति होती है, जब आत्माको देखा, तब अभाव हो जाता है. प्रथम यह विचार करै, कि जो रक्त मांस अस्थिका यंत्र शरीर है, तिसविषे मैं क्या वस्तु हौं, सत्य क्या है, अरु असत्य क्या है, तिसविषे जिसका अभाव होता है, सो असत्य है, अरु जिसका अभाव नहीं होता सो सत्यहै, बहुरि अन्वय व्यतिरेककरि विचारै, जो कार्य कल्पितके होते भी होवै, अरु तिसके अभावविषे भी होवै, सो अन्वय सत्य है, जो देहादिक भावविष भी आत्मा अधिष्ठान है, अरु इनके अभावविषे भी निरुपाधि सिद्ध है, सो सत्य है, अरु देहादिक व्यतिरेक असत्य हैं, ऐसे विचारकरि आत्म तत्त्वका अभ्यास करै, अरु असत् देहादिकते वैराग्य करै, तब निश्चय करिकै अविद्या लीन हो जाती है, काहेते जो वास्तव नहीं, असत्यरूप है, तिसके नष्ट हुए जो शेष रहै सो निष्किंचन किंचनरूप है, सो सत्य है, ब्रह्म निरंतर है, सो तत्त्व वस्तु उपादेय करने योग्य है॥ हे रामजी! ऐसे विचारकरिकै अविद्या नष्ट हो जाती है, जैसे गन्नेका रस जिह्वामें लगता है, तब अवश्यही स्वाद आता है, तैसे आत्मविचारकरि अविद्या अवश्य नष्ट हो जाती हैं, अरु जब वास्तवते कहैं, तब अविद्या भी कछु भिन्न वस्तु नहीं सर्व एक अखंडित ब्रह्मतत्त्व है, घट पट रथ आदिक जेते कछु पदार्थ हैं, जिसको भिन्न भिन्न भासते हैं, तिसको अविद्या जान, अरु जिसको सर्वविषे एक ब्रह्मभावना है, तिसको विद्या जान, इस विद्याकरि अविद्या नष्ट हो जावेगी॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणेऽविद्याचिकित्सावर्णनं नाम नवमः सर्गः॥९॥